पल्लवी गर्ग
किसी से मुलाकत से पूर्व ही हम उनके बारे में अमूमन कोई न कोई छवि बना ही लेते हैं। कभी उनको पढ़ कर, कभी उनके बारे में सुन कर, कभी उनकोसोशल मीडिया पर देख कर। साथ बनाते हैं एक सुंदर सा, अपना मनपसन्द फ्रेम। उस ‘इमेज’ को अपने हिसाब से प्रोसेस करने में माहिर हम; उस पर अलग अलग ‘फिल्टर्स’ लगाने की कोशिश करते हैं। अपने बनाए फ्रेम में उस ‘इमेज’ या तस्वीर को फिट करने की कोशिश करते हैं।
ऐसा भी वक़्त था, जब कोई फिल्टर नहीं होता था, न तस्वीरों में, न इंसानों में। जो जैसा होता, वैसा ही दिखता। सबके पास छत्तीस के रोल वाला कैमरा होता, गिनी चुनी तस्वीरें। सबके एक से दिखने वाले एल्बम। सबका एक सा जीने का ढंग! पर जैसे-जैसे कैमरा फोन के भीतर से झाँकने लगा, सोचने का ढंग बदलने लगा। जब उसी फोन पर कब्जा किया सोशल मीडिया ने, फिल्टर्स लगने लगे, न सिर्फ तस्वीरों पर, बल्कि व्यक्तित्व पर भी।
प्रतिद्वंदिता खुद को बेहतर साबित करने की शुरू हो गई। धीरे से खेल का स्तर बढ़ने लगा, रवैया भी बदलने लगा। फिल्टर्स और फ्रेम बड़े होने लगे। व्यक्ति छोटा। व्यक्तित्व और छोटा। अपने-अपने दायरे बनने लगे, और हर कोई अपने दायरे अपनी सोच के हिसाब से दूसरे को आंकने लगा यह भूल कर कि हम होते कौन हैं किसी को आंकने वाले!
अपने फ्रेम में जब कोई सही से फिट नहीं बैठता, हम निराश और हताश हो जाते हैं। क्रोधित हो जाते हैं। अक्सर उनको बदलने का प्रयत्न करते हैं। वे हमारे फ्रेम के हिसाब से खुद को न ढालें तो हम उनको जीवन से दूर करने में तनिक भी नहीं हिचकते। पर हम किसी भी व्यक्ति को जैसा वह है, स्वीकार ही नहीं पाते।
जीवन में अनेक लोग आते हैं। पर सबका रुकना नियति नहीं। विचारों की तरंगों का मेल खाना, जुड़ाव महसूस करना, स्वत: ही होता है, वक़्त के समुद्र में डूब कर, उसमें तैर कर! धीरज से। जो जैसा है, वैसा स्वीकारो। किसी को जानने के लिए, करीब होने के लिए बहुत अधिक प्रयास, करने की आवश्यकता नहीं होती है।
कुछ लोग अपनी जगह स्वत: बनाते हैं। समस्या यह है कि साथ ही मन में फ्रेम भी तैयार हो जाते हैं, फिट करने की कोशिशें भी। गर वे पूरी न हों तो खुद को सही साबित करने का प्रयत्न भी। और फिर सब खत्म। बहुत मुश्किल नहीं है इस इमेज के माया जाल को तोड़ना। खुद भी वही रहें जो आप हैं और सामने वाले को भी वह स्पेस दें कि वे बिना खुद को आपके हिसाब से ढाले, आपके सानिध्य में रह सकें। यदि इस सोच से, इस माया जाल से बच निकलें, तब बांहें फैलाए मिलती है उपजाऊ धरा-धान सी लहराती मित्रता की, पलाश से दहकते प्रेम की।