अंग्रेजी में सर आर्थर कानन डायल को बख्श दें तो भारत में भी जासूसी लेखन की समृद्ध परंपरा आप देख सकते हैं। विश्व साहित्य में अगर इसका मूल्यांकन हो तो हम कहीं से कमतर साबित नहीं होंगे। इसका श्रेय बाबू देवकी नंदन खत्री और गोपालराम गहमरी से लेकर 2023 तक के हर जासूसी उपन्यासकार को दे सकते हैं। हिंदी में नाटक और उपन्यासों के बीच जासूसी उपन्यासों के भी बीज पड़े। सबसे पहला उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ के नाम से 1882 में आया। इसकी रचना भारतेंदु युग के विख्यात नाटककार लाला श्रीनिवास दास ने की। इसके बाद ये गहमरी जी ही थे जो बांगला से एक उपन्यास अनूदित करा कर 1898 में प्रकाशित कराया। नाम था ‘हीरे का मोल’।

मुख्य धारा के साहित्य के बीच ये जासूसी उपन्यासकार सचमुच हीरे ही थे, जिनकी कद्र साहित्यकारों ने नहीं की। वहीं साहित्य के आलोचकों ने भी बेकद्री की। यह सुखद ही है कि हिंदी में इस परंपरा को लेकर कई लेखक आगे आए और उन्होंने जासूसी लेखन को न केवल समृद्ध किया बल्कि इसे लोकप्रिय भी बनाया। उस समय कुछ ‘जलनखोर’ साहित्यकारों ने इसे लुगदी साहित्य कह कर घोर उपेक्षा की। मगर जासूसी कथाकार रुके नहीं। वे लिखते गए। उनके जासूसी उपन्यासों की प्रतियां लाखों की संख्या में बिकीं।

आधुनिक दौर में धुआंधार लेखन करने वाले वेद प्रकाश कांबोज, ओम प्रकाश शर्मा और छद्म नाम से लिखने वाले ‘कर्नल रंजीत’ से लेकर सुरेंद्र मोहन पाठक की पीढ़ी ने करोड़ों पाठकों को बेशुमार कहानियां दीं। मगर नई पीढ़ी के लेखकों में वह जुनून नहीं दिखा। पिछले दस-बीस सालों में ऐसे लेखक तो गुम ही हो गए। मगर एक लेखक का उदय जासूसी लेखन परंपरा को आगे ले जाने की उम्मीद जगा रहा है। ये हैं मुकेश भारद्वाज, जिन्होंने अपने एक पात्र अभिमन्यु पर आधारित एक के बाद एक उपन्यास लिखने का फैसला किया।

मुकेश भारद्वाज का सबसे पहला उपन्यास ‘मेरे बाद’ खासा चर्चा में रहा। उसके मुख्य किरदार अभिमन्यु के प्रति पाठकों का खासा सम्मोहन दिखा। एक साल बाद ही वे अपना दूसरा जासूसी उपन्यास ‘बेगुनाह’ लेकर आए हैं। जबकि तीसरा उपन्यास ‘नक्काश’ प्रकाशनाधीन है। इन तीनों में युवा जासूस अभिमन्यु उपस्थित है तो इसका श्रेय लेखक को दिया जाना चाहिए कि वह अपने एक विशेष पात्र को हर अगले उपन्यास में ले जाने में सक्षम हैं। इस लिहाज से पिछले एक दशक में जासूसी उपन्यासों की त्रयी लाने वाले वे पहले लेखक होंगे। दूसरी ओर मुकेश भारद्वाज अपने उपन्यासों में सामाजिक संदेश भी दे रहे हैं। उनके पहले उपन्यास में एक बुजुर्ग की रहस्यमय मौत के पीछे एक बड़ा संदेश यही था कि भारत में परिवार बिखर रहे हैं। राजनीति घरों में घुस रही है। परिवार में बुजुर्गों की उपेक्षा हो रही है।

अब इंसाफ के तराजू पर ‘बेगुनाह’ है। यहां भी एक सामाजिक संदेश है। इस उपन्यास में लेखक ने घरेलू और यौन हिंसा के खिलाफ भारतीय स्त्रियों की छटपटाहट को सामने रखा है। और यह भी कि एक स्त्री ही स्त्री का दर्द बखूबी समझती है। अपराध खबरों की तह में जाने वाले मुकेश भारद्वाज के ‘क्राइम रिपोर्टर से लेकर एडिटर’ तक का तीन दशक का सफर कोई कम नहीं। अपराध, समाचार और विचार के बीच देश की राजनीति को अपनी नजर से देखने-परखने का विस्तृत अनुभव उनके लेखन की बुनियाद है। एक व्यंग्यकार की तरह तीखी नजर और सामाजिक विसंगतियों का पोस्टमॉर्टम करने की क्षमता आप उनके उपन्यास को पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं।

मुकेश भारद्वाज कहानी के भीतर कहानी रचने में माहिर हैं। वे पात्रों को जीवंत करते हुए खुद पात्रों में उतर जाते हैं। इसका जीता जागता सबूत है उनका पात्र अभिमन्यु। उपन्यास ‘मेरे बाद’ का यह जासूस ‘बेगुनाह’ में ठीक उसी अंदाज में सामने आया है। एकदम तेज-तर्रार और रोमांस को जीने वाला। विद्युत की गति से ‘एक्शन मोड’ में आने वाला यह नौजवान जासूस अपने एक मित्र दिनकर की रहस्यमय मौत की अपने स्तर पर जांच कर रहा है। पुलिस की जांच जहां थक कर सो जाती है, वहां से उस जांच को जगा कर वह हर संदिग्ध आरोपी की तलाश में निकल पड़ता है। क्या वह उन्हें पकड़ पाएगा? यह मुकेश भारद्वाज की किस्सागोई की ही विशेषता है कि पहले पेज से लेकर अंतिम पेज तक पहुंचने से पहले आपको कुछ पता नहीं कि आगे क्या होने वाला है। यह सोच कर ही आप विचलित हो जाते हैं।

अप्राकृतिक और हिंसक यौन आचरण वाले दिनकर की मौत अपने बिस्तर पर इस कदर रहस्यमय अंदाज में होती हैं कि उसके हत्यारे तक दिल्ली की पलिस पहुंच नहीं पाती। गुलमोहर पार्क में हुई यह घटना पुसिल की फाइलों में बंद होकर रह गई तो इसके लिए शातिर हत्यारे से लेकर पलिस के आला अधिकारी भी जिम्मेदार रहे। एक आपराधिक साजिश की तह में जाने और अंतिम अंजाम तक पहुंचने में अभिमन्यु के पसीने छूट गए। अलबत्ता उसकी बिंदास प्रेमिका माया का साथ न मिलता तो शायद वह असल अत्यारे तक नहीं पहुंच पाता। मगर अफसोस कि माया भी हत्यारे का साथ देती है और अंतिम सबूत जिसमें कबूलनामा है, उसे ही नष्ट कर डालती है। आखिर ऐसा क्यों किया माया ने।

एक शख्स को मारने के लिए और उस घटना को छुपाने और दबाने के लिए इस उपन्यास में कदम-कदम पर पात्र मिलते हैं। मगर हर ऐसा पात्र बेशरमी से और तिकड़म से इस जासूस के हाथ से निकलता जाता है। यह उपन्यास यह भी बताता है कि हत्या के शिकार व्यक्ति को इंसाफ दिलाना आज के दौर में कितना मुश्किल है। यह भी कि अपने यहां कानून में इतने छेद और पेच हैं कि अपराधी सबके सामने से और आराम से देश से भाग जाते हैं।

दिनकर की हत्या में एक दूसरे की मदद करने वाले पात्र सबूत होते हुए भी बेदाग बचे हुए हैं। निजी जासूस अभिमन्यु ने अपने वकील मित्र नंदा की मदद से मरने वाले की पत्नी और पूर्व पत्नी के साथ ही उसकी प्रेमिका से भी लंबी पूछताछ की। जांच के हर सिरे को पकड़ा और एक दूसरे से जोड़ा। यहां तक कि राख के ढेर में भी सबूत छान मारा। मगर फिर भी हाथ खाली। दूसरी ओर अपराध में शामिल हर पात्र के होंठ सिले हुए हैं। सब एक दूसरे की मदद कर रहे हैं। एक तरफ अकेला जासूस और दूसरी ओर हत्यारों की साठगांठ। ऊपर से पुलिस के अफसरों का वरदहस्त। यह पूरी तस्वीर है उपन्यास की।

‘बेगुनाह’ का नायक अगर बेबाक है तो सभी स्त्री पात्र भी कम बिंदास नहीं। सिया, रुक्मिणी से लेकर चित्रा और माया देह को लेकर जितनी उदार हैं मन से उतनी ही आधुनिक हैं। पाठक हैरान हो सकते हैं कि इतना बोल्ड तो अंग्रेजी के उपन्यासकार भी नहीं हो पाते। मेरी राय में इस उपन्यास का अंग्रेजी अनुवाद भी होना चाहिए। जब एक पत्रकार कहानीकार बनता है तो उससे आप बेहद सरल और सहज भाषा की उम्मीद कर सकते हैं। मुकेश भारद्वाज ने इस सहजता के साथ कहानी में गर्मजोशी बनाए रखने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। इस उपन्यास को प्रकाशित किया है यश प्रकाशन ने। मूल्य ज्यादा जरूर है, मगर पैसा वसूल है। एक पूरी की पूरी फिल्म आपकी आंखों के आगे से गुजर जाती है। अंत में आप अवाक रह जाते हैं। काफी देर तक इसका हैंगओवर बना रहता है।

-संजय स्वतंत्र


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