हिंदी में जासूसी उपन्यासों का जब उल्लेख होता है तो सबसे पहले बाबू देवकी नंदन खत्री याद आते हैं। बिहार के मुजफ्फरपुर में 18 जून 1861 को जन्मे देवकी बाबू के बारे में किसी ने सोचा भी न होगा कि एक दिन वे हिंदी के प्रथम तिलिस्मी लेखक बनेंगे। एक दौर ऐसा आया जब उनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए खाना-पीना तक भूल जाते थे। दो-दो हजार पेज की कृति, मगर पूरा पढ़ कर ही पाठकों को चैन मिलता था।

कौन थे देवकी बाबू
बाबू देवकी नंदन खत्री का पूरा परिवार बिहार में रहता था। मगर बाद में सभी काशी आकर बस गए। देवकी बचपन से ही सैर-सपाटे के शौकीन थे। गजब के घुमक्कड़। इतने ज्यादा कि कहीं भी निकल जाते। किशोर वय में ही उन्हें पेड़ों की कटाई का ठेका मिल गया। उसी में उनका मन भी रम गया। इसी क्रम में वे किले में तो कभी प्राचीन गढ़ों में घूमते। कभी खंडहरों की खाक छानते। कहते हैं कि उन्हें तिलस्मी दुनिया पर लिखने का ख्याल उन्हीं दिनों आया। वे रहस्य और रोमांच से भरी कथाएं लिखने लगे। इसी के साथ ‘ऐय्यारी’ और ‘ऐय्यार’ शब्द का चलन शुरू हुआ। उस दौर में देवकी बाबू के पाठकों की संख्या बढ़नी शुरू हुई।

हिंदी का पहला तिलस्मी उपन्यास
यह देवकी बाबू ही थे, जिन्होंने हिंदी का पहला तिलस्मी उपन्यास ‘चंद्रकांता’ लिखा। इस कृति ने धमाल मचा दिया। साल 1866 में प्रकाशित यह उपन्यास इतना लोकप्रिय हुआ कि इसे पढ़ने के लिए अंग्रेजीदां लोगों ने भी हिंदी सीखी। कोई दो राय नहीं कि इससे हिंदी का प्रचार-प्रसार भी हुआ। इसके बाद तो देवकी बाबू ने एक के बाद एक तिलस्मी उपन्यासों की झड़ी लगा दी। चंद्रकांता के बाद चंद्रकांता संतति, गुप्त गोदना, कटोरा भर, कुसुम कुमारी, नरेंद्र-मोहिनी, काजर की कोठरी और भूतनाथ जैसी लोकप्रिय कृतियां रचीं। ‘चंद्रकांता संतति’ तो ‘चंद्रकांता’ से आगे निकल गई।

राजा के यहां नौकरी और प्रेस के मालिक
देवकी बाबू के पिता का नाम ईश्वरदास था। कहते हैं उनके पूर्वज मुगलों के शासन में ऊंचे पदों पर काम करते थे। ईश्वरदास परिवार को लेकर काशी चले आए थे। यहीं देवकी बाबू की पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई। उन्होंने उर्दू-फारसी सीखी। बाद में अंग्रेजी, हिंदी और संस्कत की भी पढ़ाई की। इस तरह वे कई भाषाओं के जानकार थे। शिक्षा पूरी होने के बाद वे टेकारी एस्टेट चले गए। वहां उन्होंने राजा की नौकरी की। काशी नरेश से उनके अच्छे संबंध थे। इसलिए उन्हे जंगलों के ठेके मिले। पेड़ों की कटाई के दौरान वे कलम उठा कर लिखना शुरू कर देंगे, यह उन्होंने खुद भी नहीं सोचा था। एक समय ऐसा भी आया जब ‘लहरी प्रेस’ के नाम से अपनी प्रिंटिंग प्रेस खोली। यही नहीं उन्होंने हिंदी की एक मासिक पत्रिका ‘सुदर्शन’ का प्रकाशन भी शुरू किया।

पाठकों को ऊबने नहीं देते थे
आज कोई पाठक उपन्यास उठाता है तो बोझिल लगने पर बीच में ही छोड़ देता है। मगर देवकी बाबू क्या ही कमाल के लेखक थे। लोग उनके उपन्यासों को पढ़ कर ही खत्म करते थे। उन्होंने ‘चंद्रकांता’ के बाद ‘चंद्रकाता संतति’ की जो कड़ियां लिखीं वह इतना लोकप्रिय हुआ कि आज के दौर के लेखक अपने लिए वैसी कल्पना भी नहीं कर सकते। दो-दो हजार पेज में रचे गए उनके उपन्यास को को पढ़ते हुए पाठक थकते भी नहीं थे। आगे क्या होगा, यह कौतुहल बना रहता। देवकी बाबू की भाषा इतनी सरल और सहज कि पाठक पढ़ता चला जाए। ‘चंद्रकांता’ 24 भाग में था और सभी कड़ियों को चाव से पढ़ा गया।

‘भूतनाथ’ का भूत आज भी जिंदा है
कोई पात्र इतना लोकप्रिय हो जाता है कि उपन्यासकार को उस पर पात्र विशेष पर केंद्रित एक और उपन्यास लिखना पड़ जाता है। इस मामले में देवकी बाबू प्रथम लेखक साबित होंगे। क्योंकि उन्होंने ‘चंद्रकांता संतति’ के एक पात्र को नायक का रूप देकर उपन्यास ‘भूतनाथ’ की रचना की। दुर्भाग्य यह रहा कि देवकी बाबू इसके छह भाग ही लिख पाए। और इस बीच उनका एक अगस्त 1913 को निधन हो गया। इसके बाद के दो खंड उनके पुत्र और समर्थ उपन्यासकार दुर्गा प्रसाद खत्री ने लिखा, जिन्हें हिंदी का शेरलॉक होम्स कहा जाता है। क्या ‘भूतनाथ’ की अंतिम कड़ी बाकी है? यह सवाल अक्सर उठता है। आखिर क्यों न हो, क्योंकि उस रहस्य-रोमांच को कई उपन्यासकारों ने आगे बढ़ाया है।

अब तिलिस्म का वैसा दौर नहीं रहा। न राजा-रानी रहे न राजकुमारी। और न ही वह ऐय्यार। कालखंड बदलने के साथ आधुनिक जासूस आ गए। जासूसी के तौर-तरीके बदल गए। महिलाएं भी जासूसी करने लगीं। मदद के लिए आधुनिक उपकरण भी आ गए। देवकी बाबू आज जीवित होते तो यह सब देख कर चकित हो जाते। क्या पता चंद्रकांता की तरह ‘चार्ली अभी जिंदा है’ जैसे उपन्यास लिखते। तब हम जासूसी लेखन का और भी दिलचस्प दौर हम देखते।

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