नई दिल्ली। बहुत कम ऐसे जासूस होते हैं जिन्हें प्रधानमंत्री जानें और उन्हें एक खास नाम से नवाजें। आज हम जासूसी की दुनिया के एक सच्चे नायक को याद कर रहे हैं, जिनका नाम है रवींद्र कौशिक। महज 23 साल के रवींद्र ने सोचा भी नहीं होगा कि रंगमंच से उनका लगाव उनके जीवन को बदल कर रख देगा। देश के लिए किए उनके कारनामे जासूसी दुनिया के सुनहरे अध्यायों में से एक है।
बदल गया जीवन का रंगमंच
राजस्थान में जन्मे रवींद्र रंगमंच के बेहतरीन कलाकार थे। एक दिन मंच पर सेना अधिकारी की भूमिका निभा रहे थे। उसी दौरान नाटक देखने आए रॉ के कुछ अधिकारी उनके अभिनय के कायल हो गए। वे रवींद्र से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें खुफिया एजंसी में जासूस की नौकरी की पेशकश की। रॉ में खुफिया एजंट की नौकरी मिलने के बाद रवींद्र का जीवन ही बदल गया। उन्हें दो साल का प्रशिक्षण दिया गया। बतौर खुफिया एजंट उनकी नियुक्ति पाकिस्तान के लिए थी। इसलिए उस देश की भाषा और धर्म से लेकर भूगोल तक की जानकारी दी गई। अलबत्ता रवींद्र पंजाबी तो अच्छी बोल ही लेते थे।
एक बड़े मिशन की तैयारी
फिर शुरू हुई खुफिया एजंट रवींद्र कौशिक के नए मिशन की तैयारी। राजस्थान के साधारण परिवार का यह नौजवान देश के लिए इतने बड़े करनामे को अंजाम देगा, यह उनके परिवार ने भी नहीं सोचा होगा। रवींद्र को जब पाकिसतान भेजा गया तो वहां उन्होंने एक अनुशासित विद्यार्थी की तरह वहां कानून की पढ़ाई शुरू की। अब उनका नाम रवींद्र की जगह नबी अहमद शाकिर था। इसके बाद कराची से शुरू हुआ उनका सफर पाकिस्तानी सेना में जाकर खत्म हुआ। यह कठिन तो था, मगर अंत दुखद ही रहा। फिर भी देश के लिए रवींद्र कुर्बान हुए।
…और मेजर साब बन गए
यह रवींद्र ही कर सकते थे। क्योंकि रंगमंच का कलाकार बहुआयामी व्यक्तित्व का होता है। वैसे एक जीवन में दूसरा जीवन जीना आसान नहीं होता। रवींद्र कौशिक ऐसा कर पाए तो इसके लिए इसका श्रेय उनकी कला प्रतिभा को भी दिया जाना चाहिए। एक तरफ उन्होंने कानून की पढ़ाई की तो इसके बाद वे पाकिस्तानी फौज का हिस्सा भी बने। अपने कामों से मेजर के पद तक पहुंच गए। यह किसी भी जासूस के लिए बड़ी बात है कि वह दुश्मन देश में सैन्य अधिकारी बन जाए। यह खुफिया एजंसी के लिए भी गर्व की बात है। तभी तो रवींद्र कौशिक तत्कालीन प्रधानमंत्री की निगाहों में भी आ गए।
जीते जी बन गए किंबदंती
रवींद्र कौशिक जीते जी जासूसी दुनिया की अनोखी कहानी बन गए। रंगमंच से लेकर फौज की जिंदगी किसी रुपहले पर्दे की कहानी की तरह ही है। मगर बाहर से देखने में जितना अच्छा लगता है, उतना अच्छा होता नहीं। जिंदगी कब अंधेरी सुरंग में चली जाएगी, यह हर जासूस को डर सताता रहता है। रवींद्र ने भी कई चुनौतियों का सामना किया। बावजूद इसके उन्होंने 1979 से लेकर 1983 तक कई गोपनीय जानकारियां भेजीं जो भारतीय सेना की रणनीति के लिए महत्त्वपूर्ण साबित हुई। उनके इन कारनामों से खुश होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उन्हे ब्लैक टाइगर कहा था। किसी जासूस के लिए इससे बढ़ कर क्या सम्मान हो सकता है।
एक दिन सब कुछ बदल गया
रवींद्र कौशिक दोहरी जीवन जी रहे थे। एक तरफ वे भारतीय जासूस का तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना के अधिकारी की भूमिका ंिनभा रहे थे। इस दौरान उन्होंने एक सैनिक की बेटी से शादी कर ली थी। और वे एक बेटी के पिता भी बन गए थे। जिंदगी अच्छी भली चल रही थी। मगर एक दिन ऐसा तूफान आया कि उनकी पूरी जिंदगी उजड़ गई। हुआ यह कि 1983 में एक भारतीय जासूस इनायत सरहद पार करते हुए पाक खुफिया एजंसियों के हत्थे चढ़ गई। कड़ी पूछताछ में उसने रवींद्र का नाम ले लिया। हालांकि इनायत एक छोटे अंतराल के लिए रवींद्र कौशिक को घर लाने के मिशन पर भेजी गई थी।
अंधेरे में गुम हो गया जासूस
इनायत से पूछताछ के बाद मेजर रवींद्र कौशिक को गिरफ्तार कर लिया गया। इसी के साथ शुरू हुआ उनकी मुसीबतों का दौर। कहते हैं कि सियालकोट में दो साल तक उनको यातना दी गई। बाद में रवींद्र को मुल्तान जेल में कैद में रखा गया। मुकदमों का लंबा दौर चला। उन्हें मृत्युदंड दिया गया। हालांकि पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने उनकी यह सजा उम्रकैद में बदल दी। तो 1983 से शुरू हुई यह यातना लंबे समय तक चली। रवींद्र सहते रहे। साल 2001 में दिल का दौरा पड़ने से मियांवाली जेल में उनका निधन हो गया। … और इस तरह किसी अंधेरी रात सरहद पार निकला यह जासूस फिर अंधेरे में गुम हो गया।