बंगले का मास्टरबेडरूम चांदनी दूधिया रोशनी में नहाया हुआ था। शाम होने के बाद लाइट नहीं जलाई गई थी। खिड़की से आती कुदरती रोशनी के बावजूद कमरा ठंडी उदासी से भरा हुआ था। किशोर ने अपने मुंह के सामने झूलते हुए फंदे को देखा। छत के पंखे से बंधा फुलकारी के दुपट्टे से बना फंदा उसकी आंखों के सामने पत्नी की यादों का इंद्रधनुष बना रहा था। एक बार आंखों के सामने सिर पर दुपट्टा लिए रजनी का चेहरा भी कौंधा।

कुछ क्षणों बाद ही उसकी जिंदगी को मौत के फंदे में घुट जाना था। पूरी जिंदगी फिल्मों के शौकीन रहे किशोर को ऐसे कई हादसे याद आ रहे थे जब मौत के आखिरी लम्हे में ही इंसान की आंखों के आगे से तमाम जिंदगी निकल जाती थी। ऐसी कई फिल्में थीं जो फ्लैश बैक से शुरू होती थीं यानी आखिरी दृश्य सबसे पहले। वह अपने दिमाग पर जोर दे रहा था कि उसे तमाम नहीं, तो कुछ ही याद आ जाए। लेकिन, उसका दिमाग तो जैसे एक शून्य से भर गया था। आंखों के सामने अंधेरा सा था। उसकी जिंदगी के सिनेमा की रील अटक गई थी।

किशोर की आंखों में अपनी पत्नी का अक्स लहराया। उसे लगा कि उसकी याद भी उसकी आंखों के पानी में बह न जाए। पत्नी से की बेवफाई की याद आते ही उसे अपनी संभावित मौत प्रायश्चित जैसी लगने लगी। मौत के आखिरी लम्हे में उसने अपनी पत्नी, जो दस साल पहले उसे छोड़ कर चली गई थी, से अपने सभी पापों की माफी मांगी। रजनी के रूप में उसे एक बेहद मजबूत और जिंदादिल पत्नी मिली थी। लेकिन उसकी याद भी ज्यादा देर ठहर न पाई। शायद वो खुद भी नहीं चाहता था कि वह उसके सामने ज्यादा देर ठहरे। मौत के अंतिम क्षणों के अपराध बोध से हासिल भी क्या  होना था। किशोर ने यही सोच कर अपने आंसुओं को पीने की कोशिश की। लेकिन आंखें थीं कि भरी जा रही थीं। यह कमजोरी कहीं उसे उसके संकल्प से डिगा न दे। लिहाजा किशोर ने रजनी की याद को जबरन अपने दिमाग से निकाला।

इस क्षण उसे कुछ भी ऐसा नहीं सोचना था जिससे वह कमजोर हो जाता और मरने के इरादे से पीछे लौट आता। उसे कुछ ऐसा सोचना था जो उसके इरादे को और मजबूत कर देता। अब उसे अपनी बेटी की याद आई। वह सोचने लगा-बेटी की पैदाइश के रोज उसके और रजनी के सिवा बाकी सब या तो सामान्यतः खुश थे या दुखी थे। मेरे दोस्तों ने तो रात को शराब की बोतल खोल ली थी। इतने अमीर खानदान में भी बेटी और बेटे का फर्क महसूस होने लगता है। बाकी सबको तो शराब की बोतलें खोलने का बहाना चाहिए था। बेटी के चालीस दिन पूरे होने पर जब मैंने पार्टी का एलान किया तो सबने उसका तगड़ा विरोध किया।

बचपन में पढ़ी किताबों ने मुझे गुलमोहर शब्द के प्रति सम्मोहित कर दिया था। गुल और मोहर…इन शब्दों से ही कागजों पर थिरकती हुई खुशबू फैल जाती थी। शायद इसी वजह से नई किताबों को पढ़ते मैं उनके पन्ने सूंघता था। बाद में जब गुलमोहर का पेड़ देखा तो यह मेरा पसंदीदा नाम हो चुका था। बेटी को गोद में लेते ही उस फूल की खूबसूरती और खुशबू की खनक कानों में गूंजी और मुंह से बेटी का नाम निकला-गुलमोहर। घरवालों ने पुकारना शुरू किया-गुल्लू। जब तक गुल्लू ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा मेरे जरूरत से ज्यादा प्यार-दुलार से उसका दम घुटने लगा। उसके रहन सहन पर मेरे शुरुआती एतराजों के बाद ही उसने मुझे अपने उन दुश्मनों में शुमार कर लिया जो उसकी आजादी छीन लेने पर आमादा था। उसके लिए मैं पिछड़े जमाने का सामंती मानसिकता का बाप था जिसके साथ महज एक अच्छी बात यह थी कि पैसा बहुत था। इससे पहले कि किशोर के मानस पटल पर गुलमोहर के हाथों हुई बेइज्जती की न्यूजरील चलती उसने उसकी याद को झटक कर अपने दिमाग से निकाल दिया।

एक बार फिर एक शून्य उसके दिमाग पर तारी हो गया। फंदे पर झूलने से पहले किशोर का अतीत फिर हावी हुआ। उसकी आंखों के सामने अपने बेटे प्रबोध का अक्स उभरा। किशोर की मां, जो मरने से पहले अपने पोते को गोद में लेना चाहती थी, ने उसके लिए कहां-कहां मन्नत नहीं मांगी थी। खुद रजनी ने हर तीर्थ पर जाकर मन्नत मांगी। दोनों खूब पढ़े-लिखे थे। दोनों ने अपनी किस्मत खुद लिखी थी और इसके लिए नैतिक-अनैतिक कुछ की भी परवाह न की थी। दुनियावी सफलता और पैसा मिलने के साथ पति-पत्नी आस्थावादी भी होते जा रहे थे। वैसे भी इंसान ज्यों-ज्यों सफल होता है, उसका ईश्वर पर भरोसा बढ़ता जाता है। सफलता के पीछे के पाप को वह आस्था के पुण्य से छिपाना चाहता है। यूं ही नहीं इंसान का पैसा बढ़ने के साथ भगवान को दान बढ़ने लगता है। जो जितना दौलतमंद होता है वह उतना बड़ा आस्थावादी क्योंकि उसके पास बहुत कुछ खोने का डर होता है। इसी डर में वह बेटे के रूप में अपना वारिस भी चाहता है जो उसके बनाए को बढ़ा सके। इसलिए प्रबोध के जन्म पर होने वाला जश्न गुल्लू के जन्म के जश्न से कहीं बड़ा और मुतवातर था। पूरा खानदान कई दिन जश्न में डूबा रहा।

प्रबोध एक प्रतिभावान बच्चा था। वह जल्दी ही अपने पिता के हर फैसले पर सवाल उठाने लगा। प्रतिरोध तो सत्ता की सबसे छोटी इकाई पिता को भी पसंद नहीं आती, चाहे वह अपनी संतान की तरफ से ही क्यों न हो। दोनों में नफरत तो नहीं पनपी पर प्यार का रिश्ता भी ज्यादा देर तक कायम न रहा। जल्द ही प्रबोध और गुल्लू एक टीम की तरह व्यवहार करने लगे। दोनों मिलकर अपने पिता की मुखालफत करने लगे। शादी होने भर की देर थी कि दोनों ने अपने पिता से अलग रहने का फैसला कर लिया। यह दूसरी बात है कि उन्होंने अपना नया आशियाना पिता के बनाए दूसरे घरों को ही बनाया। रजनी यह सदमा सह न पाई। खास कर प्रबोध के अलग होने के बाद वह गुम सी हो गई। पहले उच्च रक्तचाप और फिर मधुमेह की गंभीर मरीज बनकर बिस्तर पकड़ लिया। अनगिनत मौकों पर अपने बेटे के हाथों हुई अपनी बेइज्जती की याद से परेशान होकर किशोर ने उसे भी अपने दिमाग से झटक दिया।

एक बार फिर उसे जीवन की शून्यता का अहसास हुआ। अपने 74 वर्ष के जीवनकाल में किशोर कई बार बीमार हुआ। कई बार उसे मौत अपनी आंखों के सामने नाचती हुई दिखाई दी। लेकिन हर बार अपने परिवार की खातिर वह मौत को मात देने में कामयाब हुआ। उसके जीवन का यही लक्ष्य था कि अपनी जिंदगी रहते अपने परिवार के सभी सदस्यों के लिए इतने पैसे कमा ले कि वे पूरी जिंदगी आराम से गुजार सकें। किशोर को अपने पिता से खासी जायदाद हासिल हुई थी। नोएडा के सेक्टर 44 में 1000 वर्ग मीटर का घर था जिसके सामने की सरकारी जमीन पर भी उसका ही कब्जा था। उसने वहां एक विशाल हरित पट्टी बना रखी थी। प्रदूषण से घुटते शहर में किशोर ने अपने घर से भी बड़े प्लाट में एक जंगल उगा लिया था। नोएडा शहरी विकास प्राधिकरण हाई कोर्ट तक इस जमीन की लड़ाई हार चुका था। इस जमीन की कीमत करोड़ों में थी। आखिर पिछले महीने ही प्राधिकरण ने उससे कब्जा छुड़वाने के लिए 20 करोड़ के मुआवजे की पेशकश की थी।

दिल्ली के फिरोजशाह रोड पर एक चार कमरे का फ्लैट था जिस पर उसकी बेटी काबिज थी। वसंत विहार के तीन कमरों के फ्लैट पर प्रबोध का कब्जा था। यहीं पर एक और फ्लैट रजनी के नाम पर था जिसे पिछले साल बेच कर किशोर ने उससे आया पैसा अपनी फार्मा कंपनी में लगा दिया था। किसी एक दवा के पेटेंट पर उसकी अच्छी खासी रकम रिश्वत देने में निकल गई थी। उसका मुख्य बायोकेमिस्ट नौकरी छोड़ गया था। बाजार में आई मंदी के कारण कंपनी घाटे में चली गई थी। पिछले महीने किशोर ने आनन -फानन में उस कंपनी को बेच उससे हासिल हुए 70 करोड़ रुपए बैंक में जमा करवा दिए थे। इसमें 64 करोड़ बैंकों के कर्ज निपटाने में निकल गए। बाकी रकम बैंक में ही थी। यह कंपनी किशोर ने भी चलती हुई ही खरीदी थी। लेकिन, बाजार की समझ न होने के कारण उसे चला पाना उसके बस के बाहर की बात साबित हुई। कुल मिला कर यही एक घाटे का सौदा था जो उसने किया था। किशोर ने इस बुरे दौर को भी दिमाग से दूर करने की कोशिश की।

किशोर की आंखों के आगे एक और धुंधला सा अक्स उभरा। यह याद उसकी आंखों पर भारी पड़ी। उसने अपनी आंखों को भींच कर उनमें तैर रही आंसुओं की दो बूंदें बाहर निकाल दी। यह चेहरा सोफी का था। सोफी खान का। जो उसकी जिंदगी में तूफान की तरह आकर छा गई थी। मरते हुए किशोर की आंखों में एक बार फिर तुरंत ही आंसुओं का एक सैलाब आ गया। सोफी खान के कारण ही उसका अपने वैवाहिक जीवन में पहली बार रजनी के साथ झगड़ा हुआ था। आखिरकार पलड़ा रजनी का ही भारी रहा। तकरीबन आठ साल तक उसकी पत्नी को उसके और सोफी के संबंधों की भनक तक न लगी, जबकि सब कुछ उसकी आंखों के सामने ही होता रहा। फिर सोफी की एक गलती ने उनके संबंध को बेपर्दा कर दिया। सोफी किशोर की जिंदगी में कसक बन कर रह गई। पत्नी के सामने पर्दाफाश होने के बाद किशोर का सोफी से संबंध तो रहा, लेकिन प्रेम गायब हो गया। सोफी का उसके साथ राब्ता रहा पर मेल-मुलाकात का सिलसिला थम गया। किशोर को सोफी से भी कोई कम शिकायतें नहीं थी। बस उसे चिढ़ाने के लिए सोफी ने उसकी जानकारी में जानबूझ कर दो और लोगों से अपने संबंध बनाए जिनमें से एक से उसने शादी भी की। किशोर रिश्ते निभाने के लिए दुश्मनी के हद तक जाने वाले इस मिजाज को समझ नहीं सका था। लेकिन सोफी ने अपने संबंधों के शुरुआती सालों में किशोर को अपना सब कुछ दिया। वह भी संपूर्ण समर्पण के साथ। किशोर को सदा ही सोफी के प्रति एक जिम्मेदारी का एहसास रहा शायद इसलिए मौत की घड़ी में भी उसने सोफी के अध्याय के समीक्षा की। एक ऐसा राब्ता जिसमें कहते हैं कि प्यार को प्यार रहने दो रिश्ते का इल्जाम न दो। हमें खुशफहमी होती है कि किसी भी तरह के रिश्ते से आजाद साथ हमारा गुलाम रहेगा। लेकिन कब हम उसके भंवर में फंस कर उसमें बंध जाते हैं हमें भी पता नहीं चलता। दो लोगों की आजादी उसी वक्त खत्म हो जाती है जब वो किसी भी कारण से जिस्मानी तौर पर साथ होते हैं। हम जिसे उम्र के बड़े फासले के बावजूद प्रेम का नाम देते हैं बाद में उतनी ही आसानी से उसमें मकसद भी खोज लेते हैं। अंत समय में उभरी प्यार की याद पर मकसद भारी पड़ा और किशोर ने सोफी के ख्याल को भी खारिज कर दिया।

श्मशान घाट के अपने हर फेरे के बाद किशोर को जीवन की क्षणभंगुरता का एहसास होता रहता था। मरघटी मातम उस पर हावी हो जाता था। उसने यह कभी नहीं सोचा था कि मौत का संकल्प ले चुकने के बाद भी आदमी डांवाडोल हो सकता है। फुलकारी का फंदा बना कर जब वह स्टूल के ऊपर खड़ा हुआ था तो उसका मन किसी शून्य में शांत था। वह स्टूल को अपने पैरों से नीचे खिसकाने को तत्पर था। फिर ऐसा क्यों? क्या मन में जीने की इच्छा कभी खत्म नहीं होती ! जब उसने फंदा गले में डाल लिया था तो झूलने से पहले यह सोच क्यों आई कि उसे कुछ याद नहीं आ रहा। अब जब याद आना शुरू हुआ तो कुछ भी नहीं छूट रहा। किशोर ने अपने सिर को झटका और फंदा फिर से गले में डाल लिया।

तमन्ना, अदम्य, अक्षित- ये सब उसके कमरे में क्या कर रहे हैं? उसे याद आया कि उसकी नातिन तमन्ना और पोते अदम्य और अक्षित के सामने कितनी ही बार उसके बेटे-बेटी और बहू ने उसकी समझ पर सवाल उठाए। बचपन में जो बच्चे दादू, दादू कह कर उसकी मेहरबानियां लूटते थे, समझदार होते ही उससे कतराने लगे। तमन्ना सदा ही उस पर रहम खाने के अंदाज से बात करती थी जबकि अदम्य और अक्षित उसकी आवाज सुनते ही भाग जाते थे। उम्र के आखिरी पड़ाव में किशोर चलने-फिरने के लिए भी दूसरों का मोहताज हो गया था। लेकिन परिवार में कोई भी यह जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं था। करीब एक दशक पहले उसके स्नायुतंत्र में कुछ ऐसी कमजोरी आ गई थी कि उसको अक्सर चलने-फिरने में दिक्कत होती थी। इन्हीं दिनों पहले उसका बेटा और फिर बेटी उसके घर से रुखसत हो गए। किशोर ने बड़ी कोशिश की कि वह अपनी नातिन और पोतों को साथ रख ले। लेकिन उन्हें भी एक बीमार और आंशिक अपाहिज के साथ रहना कुबूल नहीं था। किशोर चाह कर भी इन तीनों से कोई शिकवा न कर पाया बच्चे अलग हो गए। अब कोई नहीं। अब सिर्फ मौत। उसने फंदा खींच कर अपने गले में डाल लिया।

मेरे बारे में नहीं सोचोगे दोस्त! उसकी आंखों के सामने अपने दोस्त और डाक्टर संजीव महाजन का चेहरा लहरा गया। संजीव से दोस्ती का आलम यह था कि किशोर ने कितनी ही बार उसे आधी रात को अपने घर बुला कर अपनी बीमारी पर चर्चा की। संजीव ने कभी उससे कोई मांग नहीं की। उलटे कई बार वो उसके लिए खाने-पीने का सामान लाता था। फीस का तो सवाल ही नहीं था। संजीव ही किशोर के घर आता था। दोनों दारू पीने के शौकीन थे। कभी-कभी किशोर कहता कि डाक्टर के तौर पर तो कहते हो कि न पीयो, फिर अगले ही दम चीयर्स बोल देते हो। संजीव का एक ही जवाब ‘भई जो पीने से रोकता है वह डाक्टर है, जो जाम टकराता है वह तुम्हारा दोस्त है। और फिर ‘अंडर मेडिकल सुपरविजन’ तो पी ही सकते हो।‘ संजीव के साथ किशोर के बेहतरीन पल गुजरे थे। ‘थैंक्यू माय डियर फ्रेंड!’ किशोर बुदबुदाया।

लेकिन मौत ने भी जैसे उससे फासले की कसम खाई थी। अब जो चेहरा उसके सामने था सिर्फ इसी चेहरे में इतनी कूव्वत थी कि उसे मौत के रास्ते से वापस खींच लाता। रागिनी रहेजा। किशोर की नर्स। पिछले आठ साल में रागिनी ने किशोर की नर्स के तौर पर शुरुआत करके उसके घर की मालकिन और उसके सभी व्यवसाय में उसकी प्रबंधक का दर्जा हासिल कर लिया । किशोर अपनी मौत की आखिरी घड़ी में यह कह सकता था कि उसकी जिंदगी में पिछले आठ साल में जो सबसे खूबसूरत घटना हुई वो रागिनी रहेजा थी। उसकी बदौलत ही उसकी जिदंगी खुशगवार थी। रागिनी जब उसके पास आई थी तो बहुत जरूरतमंद थी। वह आई तो आठ घंटे की नौकरी के लिए थी, लेकिन दो महीने के अंदर उसी घर में रहने लग गई।

उन दो महीनों में किशोर की जिंदगी का कोई ऐसा पहलू नहीं था जिसकी रागिनी को जानकारी न हो। किशोर की पसंद-नापसंद, सोने, उठने-बैठने की सारी समय-सारिणी रागिनी के पास थी। किशोर की कभी कोई दवा बेसमय नहीं हुई। किशोर और संजीव जब शाम को ताश खेलने बैठते तो उनकी टेबल से दो पेग के बाद जानीवाकर गोल्डन लेवल की बोतल को गायब करने से लेकर किशोर की पसंद की भुनी हुई मूंगफली को टेबल पर रखने तक का हिसाब रागिनी के पास था। किशोर के मूड स्विंग को झेलना और उसकी उदासी के क्षणों में उसकी पसंद की गजलें बजाने तक का काम रागिनी का था।

किशोर और रागिनी का संबंध परिवार को खटकने लगा था। खास तौर पर जब वह 24 घंटे घर में ही रहने लगी और किशोर ने उसे अपनी बेटी का कमरा दिया तो घर में जैसे तूफान आ गया। गुल्लू महीने में एक बार पिता के पास आती थी। एक बार जब आई तो किशोर ने अपने कानों से अपनी बेटी की जुबानी यह वाक्य सुना, ‘आर यू फकिंग माय मैड? रागिनी ने कोई जवाब नहीं दिया। किशोर को इसका बहुत सदमा लगा था। उसने कभी सोचा भी नहीं था कि उसका परिवार उसके बारे में ऐसी बात सोचेगा। लेकिन गुलमोहर के इस एक वाक्य ने रागिनी और किशोर के बीच संबंधों की नई इबारत लिख दी। अब महज वक्त की बात थी कि रात को जब घर का मुख्यद्वार बंद हो जाता तो रागिनी किशोर के कमरे में ही सो जाती। इस संबंध ने किशोर को एक नई जिजीविषा प्रदान दी। रागिनी के साथ गुजारे अपने वक्त को याद करके किशोर का संकल्प फिर डांवाडोल होने लगा। लेकिन उसने फंदे को जोर से पकड़ लिया। अब मौत से दूरी का कोई कारण नहीं था। मौत की दहलीज तक पहुंच कर लौटना एक अपराधबोध के साथ जीना होगा। यह अपराधबोध अपनी बुजदिली का होता। दूसरे की जान लेने के लिए आपका गुस्सा भी काफी हो सकता है। लेकिन गुस्से में अपनी जान लेना संभव नहीं। अपनी जान लेने के लिए परम संतोष और बहुत हिम्मत की जरूरत होती है।

किशोर ने फिर अपने सिर को झटका। ‘मुझे माफ कर देना रागिनी। मेरी जिंदगी में तुम सब झेल गईं। लेकिन मेरी मौत से बड़ी तकलीफ तुम्हें उसके बाद होने वाले हालात देंगे’। कह कर किशोर ने फंदे पर आखिरी पकड़ बनाई। तभी फिर एक साया उसकी आंखों के सामने लहराया। यह कोई था या जीने की उसकी इच्छा थी जो मौत को कुछ देर और दूर करके उसे जीने की कोई वजह तलाशने को मजबूर कर रही थी। किशोर यह सोच ही रहा था कि उसका शरीर फंदे पर झूल गया। किशोर की पकड़ में फंदा होने की वजह से उसके लटकने से जो झटका लगा उससे उसका एक हाथ तो फंदे से निकल गया। पर, दूसरा हाथ फंदे में ही फंसा रह गया। किशोर की आंखों में इस अप्रत्याशित झटके से हैरत थी। उसकी चेतना डूबती जा रही थी। फंदे की पकड़ और उसमें हाथ फंसा होने से उसका दम टूटने में वक्त लग रहा था। जिस कारण उसकी तड़प बढ़ गई थी। सांसों की डोर टूटने से पहले कुछ जलने की गंध उसके नथुनों से टकराई। क्या पंखे पर दबाव की वजह से कोई तार जल गई या घर को आग लग गई। इस कशमकश के बीच किशोर के प्राण पखेरू उड़ गए।

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