नब्बे के दशक में डीटीसी बसों में कुछ यात्रियों के हाथों में अक्सर एक उपन्यास दिखता था। नाम था-वर्दी वाला गुंडा। छपते ही इसके पहले संस्करण की 15 लाख प्रतियां बिक गई थी। वैसे उस वक्त चर्चा थी कि इस उपन्यास की 15 करोड़ प्रतियां बिकीं। लेखक थे, वेद प्रकाश शर्मा। वे हिंदी के संभवत: पहले लेखक थे जिन्होंने न केवल अपनी लेखनी के बूते आलीशान घर खरीदा बल्कि जासूसी उपन्यासों के पात्रों को भी जीवंत कर दिया। लेकिन इससे पहले सत्तर के दशक में गुरबख्श सिंह ने कर्नल रंजीत के छद्म नाम से जासूसी उपन्यासों की झड़ी लगा दी थी। उसमें उनका किरदार मेजर बलवंत एक जीवंत पात्र बन गया था पाठकों के लिए। वह किसी राज का पदार्फाश होने पर होंठ गोल कर सीटी बजाता था।
गोदान, मैला आंचल, शेखर एक जीवनी और गुनाहों का देवता के साथ विश्व साहित्य पढ़ कर बड़े हुए युवा लेखकों को ‘वर्दी वाला गुंडा’ ने सचमुच चौका दिया था। आज मोबाइल में गुम रहने वाली पीढ़ी सोच भी नहीं सकती कि इसी देश में जासूसी उपन्यासों को लाखों युवाओं और बुजुर्गों ने किस कदर चाव से पढ़ा। अब चाहे कर्नल रंजीत का जमाना हो या वेद प्रकाश जी का। जिस लेखन को लाखों लोगों ने पढ़ा, उसे हिंदी साहित्य जगत ने तिरस्कार भाव से देखा। अलबत्ता, जासूसी लेखन को साहित्य का दर्जा देने पर आज भी सवाल उठाए जाते हैं। हालांकि इस लोकप्रिय लेखन को लुगदी साहित्य क्यों कहा गया। आज भी यह समझ से परे है।
दरअसल, लोग भूल जाते है कि भारत के पहले तिलिस्मी लेखक बाबू देवकी नंदन खत्री ही थे जिनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी। यह हिंदी साहित्य जगत के लिए बड़ी बात थी। हिंदी के प्रति उनके इस अवदान को भुलाया नहीं सकता है। उनके लिखे उपन्यास चंद्रकाता ने तो धूम मचा दी। इसे पढ़ने के लिए गैर हिंदीभाषियों ने हिंदी सीखी। मगर इसकी अगली कड़ी चंद्रकांता संतति पहले से अधिक दिलचस्प थी। चंद्रकांत की चार शृंखला थी तो चंद्रकांता संतति के 24 भाग थे। सब के सब तिलिस्मी और ऐयारी के कारनामे से भरपूर। इसी तरह उनके भूतनाथ ने भी धमाल मचाया। हालांकि इसे पूरा करने से पहले खत्री जी चल बसे। बाद में इसे उनके पुत्र ने पूरा किया। इसी विधा में देखें तो हरिकृष्ण जौहर ने भी जासूसी उपन्यासों को लोकप्रिय बनाया।
हिंदी में जासूसी लेखन परंपरा में गोपालराम गहमरी, खत्री जी के बाद ऐसे लेखक हैं जिनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगों ने हिंदी सीखी। गहमरी जी पत्रकार थे। बेहद सरल भाषा में लिखते थे। सस्ते कागज पर सरल शब्दों में लिखे उनके उपन्यास इस दौर में बेस्ट सेलर बन गए थे। ये गहमरी जी ही थे जिन्होंने ऐयार शब्द की जगह जासूस का इस्तेमाल किया। हालांकि उस वक्त भी कई साहित्यकारों ने गहमरी जी के उपन्यासों को लुगदी साहित्य कह कर खारिज किया। मगर उन्होंने हार नहीं मानी। वे लिखने से लेकर प्रकाशन और वितरण भी करते रहे। उनके लिखने का जज्बा आज के लेखकों के लिए मिसाल है। बेकसूर को फांसी और सरकती लाश उनके चर्चित उपन्यासों में शुमार है।
जासूसी साहित्य लेखन में मशहूर उपन्यासकार इब्ने सफी का जिक्र न हो, ऐसा हो नहीं सकता। इसके लिए आपको पचास के दशक की ओर लौटना होगा। इस बात का उल्लेख मिलता है कि जब 1948-49 में अब्बास हुसैनी का नकहत प्रकाशन दम तोड़ने लगा तो ये सफी साहब ही थे जिन्होंने उसमें जान फूंकी। उस दौर में सफी ने गहमरी की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनका पहला उपन्यास दिलेर मुजरिम 1952 में आया था और कहते हैं कि इस पहले उपन्यास के साथ ही उन्होंने तमाम पाठकों को अपनी लेखनी का मुरीद बना लिया। फिर उनके उपन्यासों का सिलसिला शुरू हुआ। कई सालों तक उनका हर उपन्यास पिछले से ज्यादा बिका। सफी के उपन्यासों में बदी पर नेकी और अपराध पर कानून की जीत का आदर्श अवश्य रहता था। इस तरह जासूसी साहित्य में आदर्शवाद प्रेमचंद के लेखन की तरह दिखता है।
आप अगर बांग्ला साहित्य में जाएं तो वहां शरदेंदु बंद्योपाध्याय मिलेंगे अपने चर्चित उपन्यास ब्योमकेश बक्शी के साथ। बांग्ला साहित्य में ब्योमकेश सबसे मशाहूर पात्रों में से एक है। कहते हैं कि इस उपन्यास की रचना आर्थर कोन डायल की महान जासूसी कृति शेरलॉक होम्स से प्रेरित है। शरदेंदु का पात्र ब्योमकेश बांगला साहित्य का शेरलॉक होम्स है। माणिक बाबू ने ब्योमकेश बख्शी पर प्रसिद्ध फिल्म चिड़ियाखाना बनाई थी जिसमें अभिनेता उत्तम कुमार ने गुप्तचर की भूमिका निभाई थी। बाद में टेलीविजन पर पूरी शृंखला ही आई। आप पाएंगे कि यहां सत्यजीत राय ने भी फेलुदा शृंखला के अंतर्गत कई उपन्यास लिखे।
सुरेंद्र मोहन पाठक अकेले लेखक हैं जिनके लेखन का दायरा साठ के दशक से लेकर साल 2010 के बाद तक तक दिखता है। एक साथ कई पीढ़ियों ने उनके जासूसी उपन्यास पढ़े हैं। उनकी कृतियों की शुरूआत सुनील शृंखला के पहले उपन्यास पुराने गुनाह नए गुनाहगार से हुई। इस कड़ी में लगभग 120 उपन्यास उन्होंने लिखे। एक ही किरदार पर आधारित उपन्यासों की रचना करने वाले वे पहले लेखक हैं। सुनील, राजनगर नामक काल्पनिक शहर के एक काल्पनिक दैनिक अखबार ब्लास्ट का ईमानदार और खोजी-पत्रकार है। वह सदैव ऐसे लोगों की सहायता करता है जो किसी कारण से जुर्म के झूठे जाल में फंस जाते हैं। सुनील हमेशा बेगुनाह लोगों की मदद करने के लिए तैयार रहता है। पाठक जी ने भी अपने उपन्यासों की बिक्री में कीर्तिमान बनाया।
इसी कड़ी में वेद प्रकाश कांबोज और ओम प्रकाश शर्मा को भला आप कैसे भूल सकते हैं। ओम प्रकाश जी को तो देवकी नंदन खत्री के बाद जासूसी कथा के अग्रणी लेखकों में से एक माना जाता है। उनके नाम 450 से अधिक हिंदी जासूसी उपन्यास हैं। ज्यादातर चर्चित रहे।
हमारे यहां जासूसी उपन्यास पसंद करने वाले लाखों पाठक हैं। यही वजह कि भारत में जेम्स बांड से लेकर शेरलॉक होम्स खासे मशहूर हुए। वहीं विक्रम चंद्रा के सेक्रेड गेम्स को भी खूब सराहा गया। इसी कड़ी में मुकुल देव के द प्रेसिडेंट इज मिसिंग और द साइलेंट मैन, हुसैन जैदी का द डेल्ही कांसपिरेंसी, सुजाता मेस्सी का ह्यद मर्डर एट मालाबार हिल, अंकुश सैकिया का डेड मीट और अमिताभ घोष के द कलकत्ता कोमोजोम को खासी सराहना मिली। मगर सिनेमा के पर्दे पर सबसे सफल जासूसी किरदार 007 जेम्स बांड ही रहा। इयान फ्लेमिंग ने अपने इस मानस पुत्र को रचा था जो ब्रिटिश सीक्रेट एजंट था।
अस्सी के दशक में राजन इकबाल के जासूसी शृंखला वाले उपन्यास आज भी याद आते हैं। मगर पिछले एक दशक में हिंदी में जासूसी लेखन में बड़ा ठहराव दिखता है। सुरेंद्र मोहन पाठक ने कुछ साल पहले एक साक्षात्कार में कहा था कि अंग्रेजी प्रकाशक अपने लेखक को ऊंचा उठाता है। लिहाजा चेतन भगत की किताब वे लोग भी खरीदते हैं जो उसे पढ़ते नहीं हैं। हिंदी में ऐसा नहीं है। दूसरी ओर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस विधा में बड़े साहित्यकार हाथ तो आजमाना चाहते हैं मगर किन्हीं कारणों से वे पीछे हट जाते हैं। साहित्यकार श्रीलाल शुक्ल ने एक जासूसी उपन्यास लिखा था। शीर्षक था-आदमी का जहर। मगर कहते हैं कि उन्होंने इस उपन्यास की खुद ही उपेक्षा की। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने इस उपन्यास की भूमिका में ही साफ लिखा है कि इस उपन्यास के तिरस्कार में कुछ हाथ स्वयं लेखक का भी है।
पिछले एक दशक में हिंदी में नए जासूसी उपन्यास अब नहीं आ रहे हैं। अलबत्ता पत्रकार और लेखक संजीव पालीवाल का रहस्य-अपराध पर आधारित उपन्यास पिशाच जरूर चर्चा में रहा। हालांकि यह विशुद्ध अपराध कथा थी। इसमें एक आधुनिक स्त्री का प्रतिशोध था जो रोचकता से भरपूर था। अलबत्ता इससे पहले पालीवाल उपन्यास नैना लिख कर सुर्खियां बटोर चुके थे। विभूतिनारायण राय का उपन्यास रामगढ़ में हत्या हम लोग पढ़ ही चुके हैं। एक बात और इन्हीं बीते दस सालों में में ओटीटी मंच पर अपराध और जासूसी फिल्मों का भी दौर शुरू हुआ। मगर यहां अपराध कहानियां बढ़ती गई और जासूस गायब होता गया।
शृंखलाबद्ध लिखे जा रहे जासूसी उपन्यासों पर गौर करें तो सिवाय सुरेंद्र मोहन पाठक के कोई और नजर नहीं आता। वे अकेले लेखक हैं जो चार दशकों से आज भी छाए हुए हैं। टीवी और इंटरनेट के जमाने में अगर जासूसी उपन्यास छप रहे हैं या पढ़े जा रहे हैं तो यह प्रकाशक की हिम्मत और लेखक का कौशल है। जासूसी कहानियों का सुनहरा दौर बेशक खत्म हो गया हो। मगर शुरूआत शून्य से ही होती है। एक पहल चर्चित लेखक और वरिष्ठ पत्रकार मुकेश भारद्वाज ने की है।
भारद्वाज गायब हो रहे जासूस को लेकर आ रहे हैं। उनका मुख्य किरदार युवा जासूस अभिमन्यु सबसे पहले उपन्यास मेरे बाद में आया। इसी क्रम को बढ़ाते हुए उन्होंने उपन्यास बेगुनाह की रचना की। इसमें भी अभिमन्यु है। उनका तीसरा उपन्यास नक्काश जल्द ही सामने अएगा। वहां भी यह किरदार दिखेगा। इसी शृंखला में चौथा उपन्यास भी वे लिख चुके हैं। यह सिलसिला जारी है। निसंदेह मुकेश भारद्वाज इस दशक के पहले लेखक हैं जिन्होंने एक किरदार पर आधारित जासूसी उपन्यासों की शृंखला शुरू कर पुराने और नए पाठकों को भी चौंका दिया है। उम्मीद है कुछ नए उपन्यासकार भी सामने आएं।