मेरे हृदय में विराजमान कान्हा की तरह हो तुम। हर जनम में मिलती हूं तुमसे। ये तो कान्हा का ही योग है कि वे बिछड़े प्रेमी युगलों को मिलाते हैं। सच बताऊं तो तुम मेरे बिछड़े प्रेमी ही हो। तुम जब जेएनयू में कविता पढ़ते थे तो अपना दिल वार देती थी जाने कितनी बार। तुम मंच पर कविता पढ़ते हुए खुद को दुनिया की सबसे दिलफरेब लड़की के माशूक जैसा महसूस करते थे। लेकिन तुम तो मेरे ही थे।
…उन दिनों कोई प्रेमिका नहीं थी तुम्हारी। मगर मुझसे मुलाकात के बाद तुम्हारी रोमानियत इस कदर तारी हुई जिसे आस-पड़ोस से लेकर कॉलेज तक के सब लोग जान गए। वैसे भी इश्क छुपता कहां है। बता दूं कि हमारी लंबी मुलाकात के बाद अदरख वाली चाय का खाता तभी खुला था। चाय से लेकर महंगी शराब तुम्हारी कमजोरी है। तुम्हें शबाब चाहिए, तो मैं हाजिर थी। मैने दिल से प्यार किया। तुम पूछोगे, कितना? तो मैं कहूंगी, धरती से आसमान जितना।
आज तुमको याद कर रही हूं तो सोचती हूं तुम्हारा व्यक्तित्व किन परिस्थितियों ने गढ़ा होगा। तुम तो परिस्थितियों को गढ़ते हो। उसमें घुसते हो फिर निकल जाते हो। मैं जानती हूं कि सुंदर स्त्रियां तुम्हें लपक लेना चाहती हैं। जानती हूं तुम जरा दिलफेंक हो। मगर हो दिल के साफ। सबको दोस्त बना लेते हो। मगर मैं तो तुम्हारी राधा ठहरी। घूम-फिर कर मेरे पास ही आते हो। मेरी बांहों में होते हो। जब तुम रफी के? गाए गीत गुनगुनाते हो-दिल की आवाज भी सुन मेरे फसाने पे ना जा…। मैं तुम्हारे सीने पर सिर रख कर उसे सुनती हूं। ठीक वैसे ही, जैसे राधा बांसुरी की धुन सुनती थी आंखें मूंदे हुए।
अभि तुम जानते हो? अदरक वाली चाय की तरह कभी-कभी रात में किसी मुलायम से इंसान की भी क्रेविंग होती है। और, वो ऐसा ही इंसान होता जिससे आपका राब्ता रहा हो। उसकी खुशबू याद आती है। मैं तुम्हारे सिंथॉल साबुन की खुशबू आज तक वहीं भूली। …तुम किसी की बेगुनाही का सबूत लेकर मुझसे मिलने आ रहे हो, तो मुझे दूर से उसकी खुशबू आ रही है। यह महसूस करना ही प्रेम है न अभिमन्यु? जैसे तुम मुझे कभी महसूस करते होगे। अपने होठों पर। अपनी जिस्म के रोम-रोम में। मैं तुम्हारे सभी प्रिय गीत एकांत में सुनती हूं। मगर तुम जब आओगे तो क्या अपने प्रेम की वो सुगंध बचा कर लाओगे अभि? तुम बदल न जाना। कोई तुम को रिझा न ले। यही डर लगता है। तुम्हें जिन चीजों की तलब होती है वो सब मेरे पास है।
सुनो अभि, मैं राधा की तरह उदास हूं। कृष्ण जो एक बार गए, तो फिर लौट कर न आए। कहते हैं कि जब कृष्ण छोड़ कर जा रहे थे तो राधा ने कहा था- आप भले ही मुझसे दूर जा रहे हैं। मगर आप मेरे मन में हमेशा रहेंगे। …और कृष्ण चले गए। हमेशा के लिए चले गए। मगर मन से तो कभी नहीं गए। वे अपना दिल राधा के पास ही छोड़ गए। उनके बीच अटूट प्रेम बचा रहा। जैसे तुम बचे रहे मुझमें। जानते हो अभि। कृष्ण, धरती पर उतरे अकेले ऐसे देवता हैं, जिन्होंने मनुष्यों को प्रेम करना ही नहीं, जीवन के महाभारत से लड़ना-भिड़ना भी सिखाया।
…एक सवाल मन में उठता है कि अगर राधा से इतना ही प्रेम था तो कृष्ण उन्हें छोड़ कर क्यों चले गए। फिर कभी लौटे क्यों नहीं। तुमसे ऐसा ही नाता है अभि कि हम बिछड़ कर भी हर जनम में मिल जाते हैं। हम मिलते हैं तो संजोग होता है। मगर जब चले जाते हो, तो वियोग होता है। कालरात्रि भी आंसू बहाती है मुझे देख कर। तब मैं कृषकाय राधा सी हो जाती हूं। चेहरा पीला पड़ जाता और वह सौंदर्य भी जिसे देख कर तुम मुग्ध होते हो और मैं आत्ममुग्ध।
मुझे नहीं पता था कि तुम जासूस बनोगे या पुलिस की नौकरी में चले जाओगे और फिर तुम्हारे पास मेरे लिए कभी वक्त होगा नहीं। तुम्हारा चरित्र नक्काश की तरह है, जाने खुद को कब तक गढ़ते रहोगे। मगर मैंने तो खुद को राधा की तरह गढ़ लिया है। खुद को तुममें विलीन कर लिया है। जानती हूं इन दिनों किसी बेगुनाह को इंसाफ दिलाने में जुटे हो। बहुत व्यस्त हो ना इन दिनों। कोई बात नहीं। लौट कर तो मेरे पास ही आओगे।
यही तो प्रेम है न अभि। अपने प्रिय के मन में विलीन हो जाना ही सच्चा प्रेम है। प्रेम की यह पावनता जो बिरलों को नसीब होती है। प्रेम भोग में नहीं, वियोग में है। इंतजार प्रेम का सच्चा सुख है। कृष्ण ने सत्यभामा और रुक्मणी को ऐश्वर्य जरूर दिया, मगर अलौकिक प्रेम का सुख सिर्फ राधा को मिला। वही अलौकिक सुख तुमने मुझे दिया अभि। ऐसे प्रेम को साधा है मैंने। तो कब आओगे अभिमन्यु? इंतजार कर रही हूं तुम्हारा।
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(मुकेश भारद्वाज के शृंखलाबद्ध उपन्यासों की नायिका की स्नेहिल अभिव्यक्ति।