नई दिल्ली। अखबार का एक संपादक किसी भी शहर में पर्दे के पीछे की न जाने कितनी राजनीतिक हलचल का राजदार होता है। यहां तक कि उसे आपराधिक दुनिया की भी जानकारी होती है। वह समाज की नब्ज टटोलता है। वह शहर की धड़कन को महसूस करता है। मगर कभी-कभी इन्हीं सब कारणों से अपराधियों या राजनीतिक लोगों का कोपभाजन भी बन जाता है। और एक दिन सचमुच इस तरह के संपादक का जीवन और करिअर खतरे में पड़ जाता है।

सीआइडी में है एक जासूस भी
याद कीजिए पुरानी फिल्म सीआइडी को। इस फिल्म की शुरुआत ही हिला देने वाली है, जब एक संदिग्ध फोन कॉल सुनाई देती है। इसमें एक शख्स किसी व्यक्ति की हत्या करने का आदेश दे रहा है। कोई नहीं जानता कि फोन करने वाला कौन है। इसके बाद संपादक की हत्या हो जाती है। इस फिल्म का नायक इंस्पेक्टर शेखर है। वही घटनास्थल पर पहुंचता है। शेखर ऐसा जासूस है जो भूसे के ढेर से सुई भी ढूंढ निकालने का माद्दा रखता है।

हिचकाक शैली का प्रभाव
फिल्म सीआइडी हिचकाक शैली पर आधारित थी। यह शैली अलफ्रेड हिचकाक से निकली, जिसे मास्टर आफ सस्पेंस कहा जाता है। दुनिया भर के फिल्मकारों ने उनकी फिल्में देख कर सीखा। भारतीय फिल्मों में भी हिचकाक शैली कहीं न कहीं दिखाई दी। जिस समय यह साआइडी आई थी, तब यह शैली उतनी प्रचलित नहीं थी। जाहिर है इस पर हालीवुड का खास प्रभाव था। इस फिल्म के नायक इंस्पेक्टर शेखर की भूमिका निभा रहे देव आनंद का जरा अंदाज देखिए। वे किस तरह चलते हैं। किस अंदाज में बात करते हैं। निर्देशक राज खोसला ने देव आनंद से जिस तरह अंदाज में अभिनय कराया, वह मील का पत्थर हो गया। और यह यादगार फिल्म बन गई।

क्यों हुई संपादक की हत्या
फिल्म सीआइडी में संपादक की हत्या हुई है। पुलिस को हत्यारे की तलाश है। इस क्रम में जासूसी भी है। जिन लोगों ने यह फिल्म नहीं देखी है उनके लिए यह कहानी इस तरह है। एक अखबार का संपादक श्रीवास्तव की हत्या इसलिए करा दी जाती है क्योंकि वह बेहद प्रभावशाली एक व्यक्ति के अंडरवर्ल्ड संबंधों को अपने अखबार में छापने वाला था। संपादक की हत्या की जांच सीआइडी इंस्पेक्टर शेखर को सौंप दी जाती है। उसे जांच में किसी धरमदास और उसके गुर्गों पर संदेह होता है। शेखर उसे पकड़ने का मन बना चुका है।

उधर, धर्मदास कानून के शिकंजे से बचने के लिए झूठ और छल का ऐसा जाल बुनता है कि उसमें खुद शेखर फंस जाता है। यही नहीं उसे संदिग्ध भी मान लिया जाता है। नतीजा उसकी नौकरी चली जाती है। वह गिरफ्तार भी हो जाता है। इसके बाद धरमदास और उसके आदमी अपने काले कारनामे करने लगते हैं। इसके बाद क्या होता है। शेखर कैसे अपराधियों तक पहुंचता है, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी चाहिए।

कहते हैं देव आनंद इस फिल्म में छह गाने अपने लिए चाहते थे। मगर राज खोसला इसके लिए के लिए तैयार नहीं थे। जबकि देव जिद पर अड़े हुए थे। तब फिल्म निर्माता गुरुदत्त ने अपने दोस्त को मनाया और समझाया कि सीआइडी इंस्पेक्टर कई गीत गाते हुए अच्छा नहीं लगेगा। इस पर देव उनकी बात मान गए। उनको एक गीत मिला जो उस दौर में सब की जुबां पर चढ़ गया-आंखों ही आंखों में इशारा हो गया, बैठे बैठे जीने का सहारा हो गया…। 

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