नई दिल्ली। जिन लोगों ने चर्चित जासूस मेजर बलवंत के कारनामे पढ़े हैं, उन्हें लेखक कर्नल रंजीत आज भी याद आते हैं। कर्नल रंजीत यानी गुरबक्श सिंह का यह पात्र इतना लोकप्रिय हुआ कि कुछ प्रकाशकों ने मेजर बलवंत के नाम से ही उपन्यास छापना शुरू कर दिया। आखिर मेजर बलवंत में ऐसा क्या था कि लाखों पाठक कर्नल रंजीत के दीवाने थे। उनके प्रशंसक आज भी मौजूद है।
नाम तीन, लेखक एक
गुरबक्श सिंह कर्नल रंजीत के छद्म नाम से क्यों उपन्यास लिखते थे। यह सवाल अकसर मन में उठता रहा है। मगर हमारी राय में यह लेखक पर छोड़ देना चाहिए। कई बड़े लेखक और संपादक छद्म नाम से लिखते रहे हैं। आज भी लिखते हैं। एक जमाने में मुंशी प्रेमचंद नवाब राय के नाम से काफी समय तक लिखते रहे। मगर जासूसी उपन्यास लेखन में गुरबक्श सिंह पहले लेखक हैं जिन्होंने छद्म नाम से लिखा। यों उनका पहला नाम मखमूर जलंधरी भी था। यानी एक लेखक और तीन नाम।
कर्नल रंजीत के उपन्यासों का लंबा दौर
साठ के दशक से कर्नल रंजीत का जो लेखन शुरू हुआ वह बरसों तक चला। उसकी खुमारी आज भी बरकरार है। इसका श्रेय प्रकाशक हिंद पाकेट बुक्स को भी दिया जाना चाहिए। लेखक-प्रकाशक के समन्वित प्रयास के कारण मेजर बलवंत की प्रसिद्धि कई लेखकों को गुमनामी की कंदराओं में ले गई। जहां से वे कभी बाहर नहीं निकल पाए। वे छद्म नाम से लिखते हुए गुमनामी में खो गए।
भारत का पहला देसी जेम्स बांड
सच कहा जाए तो मेजर बलवंत भारत का पहला ‘देसी जेम्स बांड’ है जिसे लाखों पाठकों का प्यार मिला। उसे कर्नल रंजीत के उपन्यासों में बार-बार देखा गया। उसे चाव से पढ़ा गया। वह अपराध के जटिल मामलों को अपने तरीके से सुलझाने में माहिर है। बड़ी उम्र की महिलाओं के प्रति वह आकर्षित हो जाता है। मेजर के व्यक्तित्व का चित्रण उपन्यास ‘हत्या का रहस्य’ में लेखक ने इस तरह किया है- मेजर बलवंत तीस बरस का, लंबे कद का एक खूबसूरत और आकर्षक नौजवान था। अभी वह कुंआरा था। हैवी लाइटवेट में मुक्केबाजी का चैंपियन और पिस्तौल की निशानेबाजी में रिकार्ड तोड़ चुका था।
क्यों है मेजर बलवंत का आकर्षण
मेजर एक ऐसा प्राइवेट जासूस था जो उस दौर में सोनिया नाम की एक महिला को बतौर सेक्रेटरी रखता था। यही नहीं उसके पास एक खास नस्ल का एक कुत्ता भी था। जो उसके साथ चलता था। सबसे खास बात यह कि मामले को सुलझाने के करीब पहुंचते ही मेजर बलवंत सीटी जरूर बजाता था। फिर लोगों को बुला कर अपराध की सारी कहानी बताता। मौके पर मौजूद अपराधी पकड़े जाने के डर से भागने लगते।
कहा यह भी जाता है मेजर बलवंत के मुकाबले कोई भी प्रोफेशनल जासूस हिंदी पात्र में नहीं, जिसके पास सहायकों की पूरी टीम है। यानी सेक्रेटरी सोनिया के साथ सुनील और मालती भी है। हालांकि इस मिथ को नए दौर के लेखक मुकेश भारद्वाज ने अपने चर्चित पात्र अभिमन्यु के जरिए तोड़ दिया है। ‘मेरे बाद’ और ‘बेगुनाह’ शीर्षक से रचे गए उपन्यास में उन्होंने अभिमन्यु को एक प्रोफेशनल जासूस के रूप में सामने रखा है। कली नाम से उसकी सहायक भी है। वकील नंदा है तो मित्र माया भी है।
सत्तर के दसक में मची धूम
कोई दो राय नहीं कि जासूसी दुनिया एक रहस्यमयी खिड़की है। जहां से झांकें तो इस दौर में रहस्य-रोमांच के साथ मारधाड़ और खूबसूरत नायिकाएं दिखती हैं। महंगी गाड़ियां, बड़े-बड़े अपार्टमेंट के साथ वहां के किसी कमरे में बेडरूम के दृश्य भी दिखते हैं। मगर सत्तर के दशक में ऐसा नहीं था। तब जासूसी उपन्यास रहस्य और अपराध से भरे थे। एक अनजाने खौफ के साथ थोड़ी रूमानियत भी होती थी
बात अगर कर्नल रंजीत के उपन्यासों की करें तो वहां अश्लीलता नहीं थी। अलबत्ता उनके पात्र मेजर बलवंत का सांवले रंग की उम्रदराज स्त्रियों के प्रति आकर्षण जरूर था। सत्तर का दशक उस दौर के लिहाज से अनुकूल था। कर्नल रंजीत ने तो परचम ही लहरा दिया था। मगर एक कमी जरूर अखरी कि इस तरह के उपन्यास बेहद लोकप्रिय होने पर भी जासूसी लेखन के लिए बड़े लेखक आगे नहीं आए। उनका यह संकोच आज भी खत्म नहीं हुआ।
हरमनमौला थे कर्नल रंजीत
कर्नल रंजीत के उपन्यासों की संख्या नब्बे से ज्यादा है। कर्नल रंजीत यानी मखमूर जलंधरी दरअसल जलंधर के लालकुर्ती के निवासी थे। साहित्य से उनका लगाव बचपन से था। जलंधरी साहब गुरबक्श सिंह के नाम से भी जाने गए। वे पढ़ाई के दौरान शायरी भी करने लगे थे। पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी नहीं मिली तो आल इंडिया रेडियो जलंधर के लिए नाटक लिखने लगे थे। पैसे मिलने लगे तो लगातार लिखते चले गए। उन्होंने रेडियो के लिए 250 से ज्यादा नाटक लिखे। उन्हीं दिनों वे प्रगतिशील लेखक संघ और कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़े।
पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ने पर वे 1958 में दिल्ली चले आए। यहां वे उर्दू अखबार मिलाप से जुड़ गए। उसी दौरान उन्होंने रूसी साहित्य का अनुवाद किया। यहां बहुत मेहनत करने पर भी उतनी आमदनी नहीं होती थी। यही वह समय था जब गुरबक्श ने जासूसी उपन्यास लिखना शुरू कर दिया। पाठकों ने इसे पसंद किया। उन्होंने अपना नाम कर्नल रंजीत कर लिया। इस दौरान उनका लीवर भी खराब हुआ। मगर अंतिम समय तक यानी 1979 तक लिखते रहे।
आज कर्नल रंजीत बेशक जिंदा नहीं, मगर उनका पात्र मेजर बलवंत लोगों की यादों में है। वह होंठ गोल कर आज भी सीटी बजा रहा है। सुन रहे हैं आप। वहीं कहीं सोनिया और मालती भी होगी। बलवंत का कुत्ता अब भी गुर्रा रहा है।