-अतुल मिश्र
रात के उतने बजे थे, जितने बजे डरावनी और भूतिया फिल्मों के ‘फिक्स’ होते हैं कि इतने बजे सही रहेंगे! ब्लड प्रेशर हाई होने की वजह से बिजली जो है, वो लगातार कड़क रही थी। आवारागर्दी करने के लिहाज से जो हवा चल रही थी, वह सांय-सांय कर रही थी। इस आवाज में शामिल हल्की सीटियों की आवाज जहां एक ओर माहौल को और भी डरावना बना रही थी, वहीं आदमी और हवा की आवारागर्दी में एकरूपता भी प्रदर्शित कर रही थी। बिजली बार-बार कड़क कर अंधेरे को डराने में लगी हुई थी।

बारिश की बूंदें शायद हवा की आवारगी को सुखद मानते हुए उसके साथ ही उड़ रही थीं। सड़क के दोनों ओर खड़े सूखे पेड़ों की टढ़ी-मेढ़ी टहनियों को देख कर यह पक्का लग रहा था की यहां आसपास ही कहीं वन-विभाग का दफ्तर जरूर होगा। बहरहाल, दफ्तर तो नहीं, मगर एक ऐसी हवेली जरूर मौजूद थी, जो बाहर से तो बहुत भव्य लग रही थी, मगर अंदर पहुंचने पर पता चलता था कि वह तो लुटी-पिटी कोई इमारत है और उल्लुओं के लोटने के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त हुई है।

कुल मिला कर, बरसात की वह रात इसलिए भी कभी नहीं भूली जा सकती कि इस रात से पिछली वाली रात ही टीवी पर मौसम के पूवार्नुमान के अनुसार इस क्षेत्र में सूखा पड़ने की संभावना जताई गई थी। (हमारी इस डरावनी कहानी की कास्टिंग में मौसम वि•ााग को भी अंग्रेजी में थैंक्स लिखा जाएगा, क्योंकि मौसम को उसकी घोषणा के विपरीत मान कर ही हमने कहानी की शुरुआत की थी।)

अचानक, जो हमेशा अचानक ही दिखाया जाता है, नायक और नायिका के साए पानी में गीले ना हो सकने की अहम वजह से इस हवेली के अंदर प्रवेश करने के लिए दरवाजे के पास आकर खड़े हो जाते हैं। नायिका के अल्प वस्त्र उससे इस तरह चिपके पड़े हैं, जैसे उन्हें सुखाने के बहाने बदन से हटाने के भावी कार्यक्रम की भनक लग गई हो और सेंसर बोर्ड की वजह से वे पूरी तौर पर इसके लिए राजी ना हों। 

हवेली के दरवाजे पर नायक का वाटर प्रूफ घड़ी पहने हाथ दिखाई देता है, जिससे एकदम जाहिर हो जाता है कि वह नायिका के सतीत्व की रक्षा के लिए उसे लेकर अंदर आना चाहता है! दरवाजा चर्र की आवाज के साथ ही कुछ इस अंदाज में खुलता है, जैसे पूरा खुलने से इनकार करने के मूड में हो। कुछ चमगादड़ दरवाजे से ऐसे बाहर निकलते हैं, जैसे  सरकार में शामिल होने के लिए सीधे दिल्ली जाने की जल्दी में हों।

मकड़ी-मकड़ों के आपसी सहयोग से बने विशालकाय जाले वातावरण की भयावहता में और इजाफा कर रहे थे। नायक-नायिका कैमरामैन और उसकी पूरी टीम की मौजूदगी में अंदर की ओर अपने कदम रखते हैं और यहीं पर कट की आवाज सुनाई देती है, जो किसी भूत की नहीं, बल्कि भूतनुमा फिल्म-निर्देशक के मुंह से निकली होती है। सब डर जाते हैं।

रात का अंधेरा, कड़कती बिजली, सांय-सांय करती आवाज, भीगे बदन नायक-नायिका, उल्लू, चमगादड़, मकड़ी के जाले और अंदर पड़े फूस पर लेट कर ‘बदन में अगन’ के तुकान्तों से भरा गाना सुन कर हवेली के तमाम भूत चकित थे कि ये लोग तो हमसे भी बड़े भूत हैं, जो हमसे डरने की बजाय अजीब ख्वाहिशों से भरे गाने गाने में लगे हुए हैं! कहानी यहीं पर शर्म से अपना दम तोड़ देती है।

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