– संतोषी बघेल
एक स्त्री क्या चाहती है?
शायद वो खुद भी नहीं जानती!
वो बुनती है ख्वाब प्रतिपल,
कुछ विद्रोही बन कर,
कुछ निरंकुश होकर।

वो मन को देती है जरा सी ढील,
कि जी ले कुछ आजादी से,
तोड़ दे कुछ दायरे,
चले कभी लीक से हट कर,
कभी खुद की खुशी की खातिर,
घर और समाज को आड़े न आने दे,
जी ले अपने ढंग से, अपनी जिंदगी
समाज के नियमों को शर्मसार कर दे!!

लोग यही तो कहेंगे न,
कि फलां औरत उच्छंखल है,
न रुकती, न थमती न डरती हैं
समाज के निरंकुश दबाव से,
न उन्हें तोड़ा जा सकता है
चरित्रहीनता की चोट से,
न उन्हें भरमाया जा सकता है
व्यर्थ की नैतिकता के तर्क से,
वो अपने दृढ़ निश्चय पर
कायम रह कर,
दूर कर सकती हैं अपने डर।

अपनी नियति के खोखलेपन को
अनावृत कर सकती है,
अपने साहस से चाहे तो
हर नियम को चुनौती दे सकती है…
पर कहा न मैंने, गर वो चाहे तब,
उनके चाहे बिना उनकी इच्छा
केवल कल्पना बनी रह जाएगी
और नैतिकता का तर्क
उन्हें डिगाता ही जाएगा…।

वो डरती है कि कहीं
समाज का बुद्धिजीवी तबका
उनके नाम का बिल न फाड़ दे,
उनके जीवनशैली पर टिप्पणी न टांक दे।
वो डरती है और सदैव डरती है,
और इसी डर से फलता फूलता है समाज!
समाज के नियमों का अस्तित्व भी
इसी डर में निहित है शायद!!

स्त्रियों का डरना केवल डरना नहीं है,
ये समाज के खोखले नियमों को
पोषण देने जैसा है,
स्त्रियों ने केवल नैतिकता नहीं थामी है,
बल्कि अपने हिस्से दोयम होने की
लकीर भी खिंचवा ली है।

(कवयित्री रायपुर के पास विद्यालय में अंग्रेजी की व्याख्याता है)

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