नई दिल्ली। खोजी पत्रकारिता और जासूसी में महीन सा फर्क है। सत्तर के दशक से लेकर नब्बे के दौर में खोजी पत्रकारिता का लंबा दौर चला। देश के कुछ प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबारों ने तो इसे खासा महत्त्व दिया। सत्ता प्रतिष्ठानों में गडबड़Þझाले से लेकर कुछ नेताओं के काले कारनामे भी उजागर किए। आज भी कई बड़े टीवी चैनलों और अखबारों में अपराध संवाददाताओं एवं खोजी पत्रकारों की विशेष टीमें (एसआईटी) बनाई गई हैं। यह विशेष टीम किसी घटना विशेष या किसी बड़े फर्जीवाड़े का पता लगाने का काम करती है। यह छानबीन अपने स्तर पर होती है। पुख्ता सबूत मिलते ही इसे प्रकाशित या प्रसारित किया जाता है।
आज के दौर में जरूरी है पत्रकारों की भूमिका
एक दौर था जब अपराध संवाददाताओं का पुलिस अफसरों से ‘याराना’ होता था। मेल-मुलाकात और साथ चाय पीते हुए दोनों पक्षों को शहर की आपराधिक घटनाओं की जानकारी मिल जाती थी। कई बार ऐसा होता है कि पुलिस कुछ मामलों की जानकारी छुपा लेती है। ये खोजी पत्रकार ही होते हैं जिनसे पूरे शहर को पता चलता है कोई बड़ी घटना घटी है। ऐसे में पुलिस सतर्क हो जाती थी। शहर को अपराधियों से मुक्त बनाने में जितनी भूमिका पुलिस की रही है उतनी ही भूमिका अपराध संवाददाताओं की भी रही है। इसलिए जब तक देश और समाज रहेगा, खोजी पत्रकारों की महत्ता कभी कम नहीं होगी।
जब पत्रकार ही बन गया नायक
साठ के दशक में धुआंधार लेखन करने वाले चर्चित लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक ने इस महत्त्व को समझा। वे करीब तीन सौ उपन्यास लिख चुके हैं, मगर एक खोजी पत्रकार को नायक बना कर उन्होंने दर्जनों उपन्यास लिखे। उनके उपन्यासों में ‘सुनील’ नाम का एक एसा पत्रकार बार-बार दिखा। लोगों ने इसे चाव से पढा। वह कहानी का असल नायक बन गया। कहने का अभिप्राय यह है कि पाठक जी ने खोजबीन करने वाले पत्रकारों को एक तरह से जासूस ही माना। क्योंकि वह भी रहस्य का पता लगाने में जुटा रहता है। पत्रकारों के प्रति पाठक जी का यह लगाव उनको आज भी प्रेस क्लब तक ले जाता है।
जब सुनील का हुआ विरोध
सुरेंद्र मोहन पाठक ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि सुनील शृंखला का उपन्यास लिखते समय दिल में जो भाव आता था वह कुछ और लिखते हुए नहीं आता था। लेखक ओम प्रकाश शर्मा ने उनसे एक बार कहा था कि अपने उपन्यास में किसी पत्रकार को नायक बनाओ। जब उन्होंने ऐसा किया तो इसका बड़ा विरोध हुआ। एक प्रकाशक ने तो उपन्यास ही लौटा दिया। मगर जब किसी तरह छपा तो लोगों ने भी खिल्ली उड़ाई। क्योंकि उस दौर में लोग खोजी पत्रकार को बतौर नायक स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। सुरेंद्र मोहन पाठक ने उस साक्षात्कार में बताया था कि देर लगती है, मगर परिश्रम कभी बेकार नहीं जाता।
क्यों लोकप्रिय हो गया सुनील
सुरेंद्र मोहन के लिखे उपन्यासों में सुनील सीरीज के उपन्यास काफी चर्चित हो गए। साल 1963 में शुरू हुई इस शृंखला को लोगों ने हाथों-हाथ लिया। सुनील राजनगर का रहने वाला है। वह अखबार ‘ब्लास्ट’ में अपराध संवाददाता है। सुनील कुमार चक्रवर्ती नाम का यह पत्रकार मशहूर है अपने काम के लिए। वह खोजी दृष्टि रखता है। अपराध से जुड़ी जटिल गुत्थियों को सुलझा देता है। मगर कई बार बदकिस्मती से या कहें कि लोगों की मदद करने के दौरान फंस भी जाता है। इसके बाद जो रहस्य-रोमांच सामने आता है, वह रोचक है।
सुनील कई बार मुश्किल में उसी तरह फंसता है जैसे दूसरे खोजी पत्रकार फंस जाते हैं। ऐसे में उसका दोस्त रमाकांत मदद करता है। वह यूथ क्लब का मालिक है। रमाकांत के सहयोगी जौहरी और दिनकर भी नायक मदद करते हैं। पाठक के बाद के उपन्यासों में सुनील का जूनियर अर्जुन भी साथ होता है। यानी सुनील के पास भी अपनी एक टीम है।
कई बार मुसीबत में आया
एक खोजी पत्रकार जब जासूस जैसा काम करने लगे तो उसके खुद के जीवन से लेकर दफ्तर तक में कुछ दिक्कतें पैदा होती हैं। जैसे एक बार कोई बड़ा उद्योगपति किसी कार हादसे का शिकार होता है। साथ में एक युवती होती है। इस खबर को ब्रेक करने के चक्कर में सुनील की नौकरी पर बात आ जाती है। क्योंकि वह उद्योगपति शहर का नेता भी है। दूसरी ओर सुनील सरकार के गुप्त मिशनों को भी पूरा करता है। ऐसे में दफ्तर से लगातार गायब रहने पर सुनील के संपादक भी नाराज हो जाते हैं।
यह भी सच है कि अपराध संवाददाताओं से पुलिसकर्मी अमूमन नाराज रहते हैं। क्योंकि खबर छपने से उनकी भी लापरवाही सामने आ जाती है। ऐसे में सुनील भी इनके जाल में फंसते-फंसते रह जाता है। कई उपन्यासों में नायक की अपनी तहकीकात पुलिस विभाग के आड़े आ जाती है। ऐसे में कोई इंस्पेक्टर प्रभुदयाल भी हैं जो सुनील को एक बार जेल भिजवावे के फेर में है। मगर वह कामयाब नही हो पाता। इस तरह आप समझ सकते हैं कि एक खोजी पत्रकार के सामने कितनी चुनौतियां हैं। दुखद है कि अब कोई पत्रकार ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहता। वजह कई हैं।