जासूस डेस्क
नई दिल्ली। नब्बे के दशक में एक उपन्यास आया था जिसकी नाम था-‘वर्दी वाला गुंडा’। अगर आप उस दौर से गुजरे हैं, तो आपने बसों और ट्रेनों में लोगों को इस उपन्यास को पढ़ते-सहेजते जरूर देखा होगा। एक तो इसके शीर्षक ने ही चौंकाया था तो दूसरी ओर इस उपन्यास ने एक सामाजिक संदेश भी दिया। लेखक ने इस शीर्षक से उपन्यास क्यों लिखा? इसे समझना होगा। आखिर क्या देखा था उन्होंने वर्दी के पीछे? कोई भी लेखक किसी कहानी के पीछे सिर्फ कल्पना को ही आधार नहीं बनाता? उसके पीछे कहीं न कहीं कोई वास्तविक घटना छिपी होती है। लेखक बिना उद्देश्य और सामाजिक संदेश के लिखे, तो उसके लेखन की सार्थकता ही क्या है।

हिंदी के जेके राउलिंग
हम बात कर रहे हैं लोकप्रिय साहित्य के ऐसे लेखक की जिन्हें हिंदी का आर्चर या जेके राउलिंग कहा गया। ये और कोई नहीं वेद प्रकाश शर्मा हैं जिनके उपन्यास ‘वर्दीवाला गुंडा’ के पहले संस्करण की 15 लाख प्रतियां बिक गई। अब तक का यह आंकड़ा हैरान कर देने वाला है। किसी भी स्थापित लेखक के लिए यह अब भी सपना है। आठ करोड़ प्रतियां कम होती हैं क्या। देखा जाए तो दुनिया के रहस्य-रोमांच से भरे उपन्यासों के बीच यह क्लासिक है। मगर अफसोस कि चाहे गुलशन नंदा हों या वेद प्रकाश इन्हें तो लुगदी साहित्यकार माना गया चाहे उनकी लोकप्रियता चरम पर ही क्यों न हो।

पाठ्यक्रम में लाने पर हुआ विवाद
जब गोरखपुर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ‘वर्दीवाला गुंडा’ को शामिल करने की चर्चा चली तो उस पर खासा विवाद हुआ। कई साहित्यकारों ने कड़ा विरोध जताया। जबकि यह पाठ्यक्रम में नवाचार लाने और हिंदी साहित्य की विविधता से विद्यार्थियों को रूबरू कराने का प्रयास था। तर्क यह भी दिया गया था कि जब दुनिया के कई विश्वविद्यालयों में लोकप्रिय साहित्य के पाठ्यक्रम में जेके रोलिंग का हैरी पॉटर शामिल है तो यह क्यों नहीं। अगाथा क्रिस्टी और बॉब डिलन की रचनाएं तो वहां के लोकप्रिय साहित्य के पाठ्यक्रम में सम्मिलित हैं। मगर कहने वालों ने यह भी कहा कि हर लोकप्रिय साहित्य सस्ता या विकृत नहीं होता। हमारे सामने मधुशाला और गुनाहों का देवता उदाहरण है। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो शर्मा के उपन्यास का विरोध क्यों।

समाज को करीब से देखा लेखक ने
‘वर्दीवाला गुंडा’ के चर्चित होने का कारण वह दौर भी था जब पुलिस सिस्टम में ऐसे लोग भी आ गए जो खुद को कानून से ऊपर समझने लगे थे। ऐसे लोगों को वेद प्रकाश शर्मा ने नजदीक से देखा। उन्होंने इस बात का जिक्र भी कहीं किया है। उन्होंने वर्दी पहने एक सिपाही को नशे में देखा। वह बेवजह सड़क पर लाठियां भांज रहा था। इस पर शर्मा के मन में ख्याल आया कि यह तो वर्दी की आड़ में मनमानी है। इसी के बाद उनके मन में ‘वर्दी वाला गुंडा’ शब्द आया। जब इस शीर्षक से वे उपन्यास लिख रहे थे तो कई बार लगा कि यह ठीक से लिखा नहीं जा रहा। इसी दौरान राजीव गांधी की हत्या हुई। उन्होंने इस घटना को भी उपन्यास में शामिल किया। जब यह छप कर आया तो पाठकों ने इसे हाथों-हाथ लिया। कहते है कि पहले ही दिन 15 लाख प्रतियां बिक गर्इं।

लोगों के जेहन में है यह उपन्यास
साल 1955 में जन्मे वेद प्रकाश वर्मा अगर आज जीवित होते तो 78 साल के होते। वे भी सुरेंद्र मोहन पाठक की तरह सक्रिय होते और बीते पांच साल में कम से कम चार उपन्यास तो लिख ही चुके होते। मगर करते भी तो कैसे, वे कैंसर से पीड़ित हो गए थे। नियति ने एक लोकप्रिय लेखक को उसके करोड़ों पाठकों से छीन लिया। आज बेशक वे अपने पाठकों के बीच नहीं हैं, मगर उनका 1993 में छपा सबसे लोकप्रिय उपन्यास लोगों के जेहन में आगे भी बना रहेगा।

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