-संजय स्वतंत्र

सुनो, इमरोज़ नहीं हूं कि
तुम रतजगे करो और मैं
बनाऊं चाय तुम्हारे लिए,
मैं चाहता हूं कि
तुम्हारे माथे पर अंकित कर दूं
एक हरी-भरी धरती और
हाथ पकड़ कर ले चलूं
तुम्हें किसी चाय बागान में
वहीं कहीं किसी टपरी पर
पियेंगे संग-संग चाय।

सुनो, इमरोज़ नहीं हूं कि
तुम मेरी पीठ को
श्यामपट बना कर लिखो
उस प्रेमी की कहानी जो
गुम हो गया हाथ छुड़ा कर
और हो गया किसी का।
मैं चाहता हूं कि
तुम्हारी धवल-स्निग्ध पीठ पर
लिखूं नीली स्याही से प्रेम की
एक नई इबारत और
जिसे सिर्फ तुम महसूस करो।

सुनो, इमरोज़ नहीं हूं कि
मैं तुम्हारे लिए बरेली या
चांदनी चौक से लाऊं झुमके
और तुम पहन कर इतराओ,
मैं चाहता हूं कि
तुम्हारे कानों पर खुद झूल जाऊं
झुमके बन कर और दिन में सुनाऊं
किशोर के गाए प्रेम गीत
और रात में कोई लोरी।

सुनो, इमरोज़ नहीं हूं कि
मैं ही स्कूटर चलाऊं
यहां से वहां तुम्हारे लिए,
चाहता हूं कि चलाओ तुम कार
और ले चलो मुझे कहीं भी,
फिर तुम कृष्ण बना जाओ
और मैं राधा बन सुनता रहूं
तुम को अपलक।

सुनो मित्र,
तुम्हारी आंखों में देखना चाहता हूं
फिर से उगता वही नारंगी सूरज
जिसकी रश्मियां तुम्हारे पैरों में
भर देती है नित नई ऊर्जा,
बुझ चुकी कामनाओं का दीप
प्रज्वलित करना चाहता हूं
तुम्हारी पलकों के नीचे,
तुम्हारी सभी स्याह रातों को
ले जाना चाहता हूं बहुत दूर…।

सुनो, वह इमरोज़ नहीं हूं
जो बनाता था अमृता के लिए
नाश्ता और भोजन,
मैं तो तुम्हारे हर निवाले में
उतर जाना चाहता हूं,
बन जाना चाहता हूं चाय वह प्याला
जिसे तुम लगाती हो बार-बार
अपने सुर्ख-नरम होठों से,
मैं उसकी गरमी महसूस करना चाहता हूं।

मैं इमरोज़ की तरह
तुम्हारे लिए छत नहीं
आसमान बनना चाहता हूं,
जहां तुम सजा सको
अपने सपने और कई रंग बेहिचक।
देह से परे आज भी
मन की दुनिया कहीं अच्छी है।
हम उस दुनिया में फिर से मिलेंगे
हम इमरोज़ न होंगे
पर रोज-रोज मिलेंगे।
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