जासूसी डेस्क
नई दिल्ली। बाबू देवकी नंदन खत्री के बाद गोपाल राम गहमरी दूसरे बड़े लेखक हैं जिन्होंने जासूसी लेखन परंपरा को समृद्ध किया। हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए इन दोनों को श्रेय दिया जाता है। यह तथ्य है कि खत्री और गहमरी की जासूसी कथाओं को पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में लोगों ने हिंदी सीखी। गहमरी मूल रूप से पत्रकार थे। उन्होंने निरंतर 38 साल तक बिना किसी की मदद के ‘जासूस’ नाम से पत्रिका निकाली। वे एक अच्छे अनुवादक भी थे। उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर की ‘चित्रांगदा’ का भी अनुुवाद किया। गहमरी ने पत्रकारिता करते हुए, अनुवाद करते हुए जासूसी लेखन में भी झंडा गाड़ दिया। यही वह समय है जिसे लोकप्रिय साहित्य का स्वर्ण काल कहा गया।
गोपाल राम कैसे बन गए गहमरी
गहमरी का शुरुआती जीवन बेहद संघर्ष भरा रहा। जब वे छह महीने के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया। नतीजा यह कि मां उनको अपने मायके गहमर ले गर्इं। वहीं गोपाल राम ने पढ़ाई की। साल 1879 में उन्होंने मिडिल कक्षा पास कर ली थी। फिर वहीं वे स्कूल में पढ़ाते रहे। इस दौरान इनका गहमर से खासा लगाव हो गया। यही वजह है कि उन्होंने गहमर को अपने नाम से जोड़ लिया। उन्हीं दिनों वे पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिख रहे थे। उनके भीतर एक लेखक का जन्म हो रहा था। इसी के साथ उन्होंने पत्रकारिता भी शुरू की। यहां यह बता दें कि गहमरी पहले पत्रकार थे जिन्होंने बाल गंगाधर तिलक पर मुकदमे को अपने शब्दों में दर्ज किया।
लेखक के साथ कुशल पत्रकार
गोपाल राम गहमरी अच्छे लेखक तो थे ही, उससे पहले व्यापक दृष्टि रखने वाले पत्रकार भी थे। यह उनका भाषा कौशल ही था कि उनके संपादन में कई उत्कृष्ट पत्रिकाएं निकलीं। गहमरी का मानना था कि लेखक की भाषा सरल और सहज होने के साथ सुलझी हुई होनी चाहिए। ऐसा न हो कि किसी शब्द को समझने के लिए शब्दकोश उठाना पड़ जाए। उनका यह भी मानना था कि कोई कहानी पूरी तरह कल्पित होते हुए भी उसे सच समझे। जासूसी कहानियों का एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार करने खत्री जी के बाद गहमरी का बड़ा योगदान है। उन्होंने ‘अय्यारी’ को छोड़ कर जासूसी शब्द का प्रयोग किया। एक पत्रकार जब लेखक बन कर सामने आता है तो उसके लेखन में सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार होता है। गहमरी ने भी ऐसा किया। उन्होंने सरल भाषा में जासूसी लेखन किया। उन्हें बड़ी संख्या में लोगों ने इसे पसंद किया।
यह गहमरी जी की ही क्षमता है कि वे बंबई में एक बार ‘वेंकेटेश्वर समाचार’ का संपादन करते हुए अपनी पत्रिका ‘जासूस’ भी निकालते रहे। हालांकि वे ‘भारत मित्र’ और हिंदुस्थान दैनिक से भी जुड़े।
हिंदी में कुछ नया करने की ललक
एक ऐसी बेचैनी थी जो गहमरी को बार-बार अखबार और पत्रिकाएं बदलने के लिए विवश कर रही थी। यह बात और है कि कई पत्रिकाएं बंद होने से भी उनको काम छोड़ना पड़ा। मगर वे लगातार कुछ नया करने की जिद ठाने बैठे थे। यही वजह है कि उन्होंने अपने नियंत्रण में ‘जासूस’ नाम से एक पत्रिका शुरू की। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता कि इसके विज्ञापन ने ही सबको चौंका दिया। पत्रिका छपने से पहले ही सैकड़ों पाठकों ने इसकी सालाना सदस्यता ले ली थी। यह साल 1900 था और उस दौर में गहमरी जी को प्री बुकिंग से 175 रुपए मिल गए थे। इस पत्रिका के साथ गहमरी ने ‘अय्यार’ शब्द को हमेशा के लिए दफन कर दिया। कहते हैं कि उनकी पत्रिका कम ही समय में लोकप्रिय हो गई। इसके बाद तो गहमरी पूरी तरह जासूसी लेखन से जुड़ गए। फिर एक के बाद एक उपन्यास लिखे। कई कहानियां भी लिखीं।
गहमरी जी ने कभी इस बात की चिंता नहीं की कि आलोचक उनके बारे में क्या सोचते हैं। इस तरह उन्होंने हिंदी साहित्य में जासूस कथा विधा को समृद्ध किया। वहीं इस माध्यम से खड़ी बोली भी मजबूत की। उन्होंने एक ऐसी हिंदी गढ़ी जो सुबोध थी। पाठकों के लिए सहज थी। हिंदी की विकास यात्रा में जिन लेखकों को स्मरण किया जाएगा, उनमें गहमरी जी अगली पंक्ति में होंगे।
जासूसी लेखन के पुरोधा
बाबू देवकी नंदन खत्री के बाद गहमरी दूसरे लेखक हैं जिन्होंने हिंदी साहित्य में जासूसी लेखन की बुनियाद मजबूत की। उन्होंने 64 उपन्यास लिखे। कुछ उपन्यास तो बेहद चर्चित रहे। उनके इस लेखन का प्रख्यात आलोचक पं. रामचंद्र शुक्ल ने अपनी कृति ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में जिक्र किया और सराहा। दूसरे आलोचकों से मिली उपेक्षा के बावजूद गहमरी जी ने लिखना जारी रखा। इसके बाद इस विधा में इब्ने सफी और रानू सहित कई लेखक आगे आए। फिर तो यह सिलसिला बढ़ता चला गया। इसके बाद गुलशन नंदा और कर्नल रंजीत से लेकर सुरेंद्र मोहन पाठक वे इस परंपरा को और समृद्ध किया। इन सभी ने गहमरी की तरह काल्पनिक कहानियों को यथार्थ के धरातल पर प्रस्तुत करते हुए सामाजिक विसंगतियों को भी सामने रखा।