-संजीव सागर

मुझको मिली है एक सहेली मां जैसी,
बूझ  न पाया  मैं  वो  पहेली मां जैसी।

हरदम ही  दुनिया से  लड़ती रहती है,
मेरी  खातिर  एक  अकेली  मां जैसी।

पहली बार मिले ही उसको जान गया,
वो  दुल्हन  है  एक  नवेली  मां जैसी।

उसके लिए मैं एक खिलौना प्यारा सा,
वो भी मीठी  गुड़ की धेली मां जैसी।

बच्चों जैसा मैंने उसको प्यार किया,
उसने ममता मुझपे उड़ेली मां जैसी।

मैं तो कच्चा पक्का घर हूं मिट्टी का,
रब के बराबर है वो हवेली मां जैसी।

बूँद गिरी तो मिट्टी महकी यूं ‘सागर’,
सोंधी  खुशबू ने होली खेली मां जैसे।

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