जासूस डेस्क
नई दिल्ली। हिंदी साहित्य ही नहीं जासूसी कथा साहित्य में भी दुर्गा प्रसाद खत्री एकमात्र लेखक हैं जिन्होंने अपने मशहूर पिता की विरासत को ही आगे नहीं बढ़ाया बल्कि उनके अधूरे कार्यो को भी पूरा किया। चर्चित उपन्यास ‘भूतनाथ’ के छह भाग ही लिख पाए थे कि बाबू देवकीनंदन खत्री चल बसे। यह दुर्गा प्रसाद ही थे अपने पिता की छोड़ी हुई कड़ियां न केवल पूरी कीं बल्कि जासूसी लेखन में धूम मचा दी। वे पूरी दुनिया में अपने पिता के समान तिलिस्मी उपन्यासकार के रूप में विख्यात हुए। हिंदी को  शेरलॉक होम्स जैसे पात्र भी मिले।  

दुर्गाबाबू के लेखन में राष्ट्रीयता
जासूसी लेखन में समाज और उसमें आ रही विसंगतियों का कई लेखकों ने आगे चल कर बेशक पोस्टमॉर्टम किया हो, मगर इसकी नींव दुर्गा बाबू ने रखी। वे संभवत: पहले लेखक हैं जिन्होंने न केवल उस दौर में स्वतंत्रता आंदोलन को देखा बल्कि उसे अपनी कृतियों में चित्रित भी किया। यही नहीं पूरे एशिया को मुक्त कराने और उसे एकीकृत रूप की परिकल्पना भी की। उनके उपन्यास सुफैद शैतान को पढ़ते हुए आप उस दौर को महसूस भी कर सकते हैं। दुर्गा बाबू ने अपने उपन्यास ‘रक्तमंडल’, ‘प्रतिशोध’ और ‘लाल पंजा’ में राष्ट्रीय भावना को अभिव्यक्त किया। अलबत्ता, उनके उपन्यासों में सामाजिक चेतना भी दिखी।    

सामाजिक उपन्यासों में दुर्गा बाबू का लिखा ‘कलंक’ बेहद चर्चित रहा। इसमें प्रेम के अनैतिक रूप और उनसे बुरे नतीजे को सामने रखा। इसी तरह बलिदान शीर्षक से लिखे उपन्यास में भी सामाजिकता का पुट था। हालांकि ये सभी जासूसी उपन्यास ही माने गए। उन्होंने ‘सागर सम्राट साकेत’, ‘स्वर्गपुरी’, ‘सुवर्णरेखा’ और ‘काला चोर’ जैसे लोकप्रिय उपन्यास लिखे। पाठकों ने इन्हें चाव से उसी तरह पढ़ा, जिस तरह उनके पिता की तिलिस्मी कथा साहित्य को पढ़ते थे।

तिलिस्मी उपन्यासों के राजकुमार
दुर्गा बाबू ने जासूसी और सामाजिक उपन्यासों के अलावा तिलिस्मी उपन्यासों से भी धूम मचाई। ऐसा लगा कि हिंदी में ‘शेरलॉक होम्स’ चला आया हो। उन्होंने ‘रोहतास मठ’ लिख कर न केवल धमाल मचाया बल्कि ‘भूतनाथ’ की अधूरी कड़ियों को पूरा करते समय अपने पिता की शैली को अपनाते हुए उसमें एक जादू सा रच दिया। दुर्गा प्रसाद के उपन्यासों में विज्ञान की जानकारी भी होती थी। यानी उनके उपन्यासों के जासूस आधुनिक होने के साथ विज्ञान के जानकार भी होते थे। यह भी कम बड़ी बात नहीं कि दुर्गा प्रसाद खत्री ने सैकड़ों कहानियां रचने के क्रम मे दो पत्रिकाओं ‘रणभेरी’ और ‘लहरी’ का संपादन भी किया। उनकी कहानियों का संग्रह माया भी आया। मगर अफसोस कि वह अब पाठकों को मिलता नहीं।

पिता का नाम किया रौशन
बारह जुलाई 1895 में काशी में जन्मे बालक दुर्गा के बारे में स्वयं उनके विख्यात पिता बाबू देवकीनंदन खत्री ने भी नहीं सोचा होगा कि यह उनका नाम विश्व स्तर पर रौशन करेगा। उनकी विरासत को आगे बढ़एगा और यशस्वी बनेगा। दुर्गा प्रसाद ने प्राथमिक शिक्षा के बाद 1912 में विज्ञान और गणित की परीक्षा उत्तीर्ण की। विशेष अर्हता के साथ उच्च स्तर की स्कूली शिक्षा के बाद उन्होंने लिखना शुरू किया। इसके बाद उन्होंने पिता की जो कलम उठाई, उसकी रोशनाई सूखने नहीं दी। पांच अक्तूबर 1974 को दुनिया को अलविदा कहने से पहले वे जासूसी लेखन में मील का पत्थर गाड़ कर गए। जासूसी कथाओं के चस्के को दुर्गा बाबू ने जिस तरह अपने लेखन से बढ़ाया उसे आज भी याद किया जाता है।

नई लीक, नई डगर
सभी जानते हैं कि दुर्गा बाबू ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया, मगर उन्होंने तिलिस्मी उपन्यास रचते हुए अपनी नई डगर भी बनाई। लीक से हट कर उपन्यास भी लिखे। उनके उपन्यासों में वैज्ञानिकता, क्रांति और राष्ट्रीय चेतना का स्वर भी है जो दुर्गा प्रसाद को अन्य उपन्यासकारों से अलग करता है। इसे आप ऐसा मान सकते है कि उन्होंने भावी पीढ़ी के उपन्यासकारों को एक नई राह दिखाई। जिस तरह उन्होंने अपने लेखन से रहस्य और रोमांच पैदा किया, उससे दुर्गा प्रसाद को हिंदी में शेरलॉक होम्स लाने का श्रेय दिया गया। बावजूद इसके आप कह नहीं सकते कि उन पर किसी विदेशी साहित्य का प्रभाव पड़ा। उनके उपन्यासों में मौलिकता और आधुनिकता उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर के कथाकार का दर्जा देती है। 

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