-अंजू खरबंदा
जब से पता चला साथ वाली आंटी ओल्ड एज होम में शिफ्ट हो गई हैं, दिल बड़ा उदास सा था।
मैं पहाड़ों की रहने वाली चंचल हिरणी… शहर की भीड़-भाड़ से कतराती थी। मुम्बई की बड़ी-बड़ी इमारतें और माचिस की डिबिया जैसे घर मुझे जेल से कम न लगते। मायके में सब सोचते मैं कितनी किस्मत वाली हूं जो मुंबई जैसे शहर में रहती हूं, पर… उन्हें क्या पता कि यहां कितनी घुटन और अकेलापन है।
पति की नौकरी यहीं है तो और तो कोई चारा नही यहां रहने के सिवा…पर अक्सर मैं उकता जाती, खुद पर कोफ्त होने लगती। ये झुंझलाहट कभी-कभी मुझे बहुत बेचैन कर देती। ये तो शुक्र है कि सामने फ्लैट में रहने वाली आंटी जी से कभी-कभार हंस-बोल लेती हूं, तो कुछ अपनापन सा महसूस होता है पर आजकल वह बीमार होने के कारण बाहर कम ही निकलती हैं। वह पिछले कुछ दिनों से दिखीं नहीं, तो उनकी बहू रिम्पी से उनके बारे में पूछा। रिम्पी ने बड़े ही सहज रूप में कहा-
‘आजकल वह अपना घर ओल्ड एज होम’ में हैं।’
उसके चेहरे पर कोई शिकन न थी, मुझसे भी आगे कुछ न पूछा गया। मैंने मन ही मन निश्चय किया कि कल उनसे मिलने जरूर जाऊंगी। अगले दिन सुबह घर के काम निपटा जब उनसे मिलने को तैयार हो रही थी तो खुद से ही पूछा –
‘क्या कहूंगी उनसे! उनका उदास चेहरा देख कैसे उनका सामना करूंगी!’
खुद में उलझी रही, पर खुद को उनसे मिलने से रोक न पाई। करीबन दो किलोमीटर ही दूर था ‘अपना घर’। गेट पर एन्ट्री की… उनका नाम पूछने पर रिसेप्शनिस्ट ने उनका रूम नंबर बताया और रास्ता समझा दिया, मैं घड़कते दिल से चल पड़ी। रूम में पहुंची तो देखा साफ-सुथरा चमकदार कमरा, सफेद झक्क चादर बिछी हुई…धूल-मिट्टी का नामो-निशान तक न था
अभी सब बड़े कमरे में मिलेंगे।
पीछे से आता हुआ स्वर कानों में पड़ा। मुड़ कर देखा तो एक लड़के ने दायीं ओर इशारा करते हुए बताया-वो सामने बड़ा वाला कमरा है। सौ कदम पर ही कमरा था, पास पहुंची तो हंसने-खिलखिलाने की आवाजें आ रही थी। मैंने हल्का सा झांक कर देखा, सब अपने में मस्त… ग्रुप बना कर बैठे हैं। कोई कैरम खेल रहा है तो कोई चेस, कोई लूडो खेल रहा है तो कोई गप्पों में व्यस्त! चारों ओर नजर घुमाई तो खिड़की के पास लगी कुर्सी पर आंटी जी बैठी दिखीं।
‘मैं नहीं तुम आऊट हो… देखो चीटिंग नही चलेगी… अब जल्दी से चाकलेट खिलाओ।’
कहते हुए वह बेतहाशा हंस पड़ी।
एक पल को तो मुझे कुछ समझ ही नहीं आया, धीरे से उनके पीछे जाकर उनके कंधे पर हाथ रखा। मुझे देखते ही फुर्ती से उठ खड़ी हुई और मुझे गले लगा लिया।
मुझे पता था तू जरूर मुझसे मिलने आएगी।
वह मेरी आंखों में तैरते सारे प्रश्नों को पल भर में पढ़ गईं।
‘मैं यहां बहुत खुश हूं, सभी एक जैसी उम्र के लोग हैं यहां! सबका साथ बड़ा अच्छा लगता है… पता ही नहीं चलता कब सुबह हुई कब शाम!’
एक पल को रुकी फिर मुस्कराते हुए बोलीं –
‘तुम्हें तो पता ही है बेटा-बहू दोनों नौकरी वाले हैं, सुबह जाते हैं, रात गए आते हैं, वहां के अकेलेपन से मैं बहुत परेशान हो गई थी तभी तो बीमार भी रहने लगी थी। मुझे कुछ न सुझाई पड़ा कि क्या कहूं! मेरे मन के भावों को समझ वह भी मेरे चेहरे की ओर देखते हुए खुद ही बोली-
यहां के खुशनुमा माहौल में मेरी बीमारी कोसों दूर भाग गई लगती है। पता है बेटा, बुढ़ापे में अपना साथ अच्छा लगता है! कोई बोलने-बतियाने वाला हो, कोई सुख-दुख बांटने वाला हो…।’
‘और आपके बेटा बहू… !’
‘न…न उनकी कोई गलती नहीं, उन्होंने मुझे यहां नहीं भेजा। ये तो मेरी सहेली ने मुझे यहां के बारे में बताया तो मैंने खुद यहां आकर देखा और फिर घर यहां से दूर ही कितना है! जब चाहे आओ जाओ… आफिस से आते हुए बच्चे रोज मिलने आते ही हैं।’
मेरी हैरानी की कोई सीमा न थी… आज मैं ओल्ड एज होम का यह नया और अद्भुत रूप जो देख रही थी।
‘आंटी जी क्या मैं भी… रोज आ सकती हूँ यहां…अपना अकेलापन दूर करने और आप सब की जिंदगी का हिस्सा बनने!’
‘हां-हां क्यों नहीं!’
कई स्वर एक साथ उभरे और मैं भी उनके साथ खुशी-खुशी चिडिया उड़ तोता उड़ खेलने बैठ गई।
(अंजू खरबंदा कथाकार हैं)