-संतोषी बघेल

वह खेत से लौटती
बटोर लाती है सूखी टहनियां
ताकि जल सके चूल्हा और
पक सके रोटियां,

वो खेतों से लौट कर
भर लाती है गागर,
मांज लेती है चंद बर्तन
जला देती है घर के आंगन में दीया

लौटते ही वो
समेट लाती है पिछवाड़े सूखे कपड़े
तहा कर धर देती है
घर की एकमात्र अलमारी में
तरकारी काटने लगती है
संग ही बतिया लेती है घरू मुद्दों पर

वह झांक आती है कोठों पर
सारी गायें लौटी हैं या नहीं
उन्हें पानी सानी दे आती है
उन्हें स्नेह से सहला आती है

तवे पर रोटी सेंकती
बुझती हुई आग को फूंक कर जलाती है
पोछती है वह साड़ी के पल्लू से,
धुएं से गीली हुई आंखें और पसीने से तर चेहरा,

भर कर पेट परिवार का
दो निवाले खुद भी लेती है,
और सो जाती है इस उम्मीद में कि
उसकी मुनिया चूल्हा नहीं फुंकेगी
पढ़ाई कर आगे बढ़ेगी।
स्वप्न में उसे मुनिया,
गांव की मास्टरनी सी दिखने लगती है
और वो नींद में ही मुस्काने लगती है।

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