जासूस डेस्क
नई दिल्ली। वेद प्रकाश शर्मा उन गिनती के लेखकों में हैं, जिन्होंने बेहद कम उम्र में जासूसी उपन्यास लिखना शुरू किया। इस बात का जिक्र मिलता है कि जब वेद किशोर उम्र के थे, तब उन्होंने पहला उपन्यास लिख लिया था। इसे देख कर जाने-माने प्रकाशक सुरेश जैन ऋतुराज को आश्चर्य हुआ। जबकि उस समय वेद पढ़ाई ही कर रहे थे। पीले रंग के रजिस्टर में लिखे उपन्यास को पढ़ कर ऋतुराज बहुत प्रभावित हुए। तब वेद की एक ही शर्त थी कि यह उपन्यास उनके नाम से ही छपे। ऋतुराज तैयार हो गए। युवा प्रकाशक की पहल रंग लाई। वेद प्रकाश शर्मा का वह पहला उपन्यास था-‘आग के बेटे’। इसके बाद तो ऋतुराज ने एक के बाद एक उनके 90 उपन्यास छापे। अपने पूरे जीवन काल में इस लेखक ने 250 से अधिक उपन्यास लिखे।
होनवार बीरवान के …
छह जून 1955 को जन्मे वेद प्रकाश शर्मा के परिवार की एक संघर्ष गाथा है। वेद लिखने के सिवाय कोई और काम के लिए नहीं बने थे। लेखन का चस्का उन्हें बचपन से लग गया था। मगर इससे पहले उन्होंने पढ़ा भी खूब। कहते है कि हाई स्कूल की परीक्षा देने के बाद बुलंदशहर में अपने गांव गए थे। छुट्टियों के दिन थे। इस दौरान उन्होंने कई उपन्यास पढ़ा। जब सब पढ़ लिया, तो अब क्या करें। फिर वे लिखने बैठ गए और पूरा एक उपन्यास लिख दिया। यह बात उनके पिता पंडित मिश्री लाल शर्मा को मालूम हुई तो वे गांव पहुंच गए। आते ही बेटे को पीटने लगे। मां बीच में आई तो पिता बोले, यह पहले तो उपन्यास ही पढ़ता था, अब लिखने भी लगा। देख, यह कितना बिगड़ गया है। फिर पिता ने वेद से लिखे हुए कागज दिखाने को कहा। वे पढ़ते रहे। अगले दिन बेटे की तारीफ करते हुए कहा, अच्छा लिखा, मगर तेरे में इतनी बुद्धि कहां से आ गई।
प्रेस कंपोजिंग का काम करने वाले शर्मा जी बेटे की कॉपी लेकर चले गए। वे अपने बेटे को प्रेस का काम सिखाने का मन बना रहे थे। इस बात का जिक्र मिलता है कि लक्ष्मी पाकेट बुक्स के मालिक की नजर वेद की कॉपी पर पड़ गई। वे उसे पढ़ने के ले गए। जब पता चला कि यह उनके मुलाजिम के बेटे का लिखा है तो वे चकरा गए। उन्होंने वेद को बुलाया और कहा कि तुम्हें हर उपन्यास के लिए सौ रुपए दूंगा। और लिखा कर। … प्रकाशक किस तरह लेखकों का शोषण करते थे, यह उस दौरान वेद प्रकाश शर्मा को कड़वा अनुभव हुआ। वे अपना उपन्यास लेकर चले गए। क्योंकि प्रकाशक वेद प्रकाशक कांबोज नाम से उनका उपन्यास छापना चाहता था।
मां के हौसले ने बनाया लेखक
परिवार की आर्थिक जरूरतें क्या बड़े और क्या छोटे लोग, सबको मजबूर कर देती है। सात भाइयों में सबसे बड़े वेद अपनी जिम्मेदारी समझते थे। पिता की हालत खराब हुई तो घर संभालने वाला कोई नहीं था। नसीहतें देने वाले सभी थे। तब मां के हौसले से ही वेद आगे बढ़ पाए। … उधर वेद वापस तो लौट गए। मगर लगा कि लक्ष्मी पाकेट बुक का मालिक सही कह रहा है तो वे दोबारा मिलने गए। और सीक्रेट फाइल शीर्षक से और वेद प्रकाश कांबोज के नाम से उपन्यास छपा। देखते ही देखते नकली लेखक कांबोज लोकप्रिय हो गया। बाद के सालों में अन्य प्रकाशनों के लिए भी वेद लिखने लगे। फिर अपने पूरे नाम से भी छपने लगे। वेद प्रकाश शर्मा अपने नाम से लोकप्रिय हुए तो फिर रुके नहीं। लिखते गए। उनके उपन्यास की जो 50-50 हजार प्रतियां निकलती थीं उसकी संख्या एक लाख तक पहुंच गई। जब उन्होंने सौवां उपन्यास ‘कैदी नंबर सौ’ लिखा, तो इसकी ढाई लाख प्रतियां बिकीं।
बोलचाल की भाषा को तरजीह
लोकप्रिय साहित्य लेखक वेद प्रकाश शर्मा ने अपने उपन्यासों में बोलचाल की भाषा को तरहजीह दी। उनकी भाषा में इतनी सहजता थी कि पाठक एक प्रवाह में उनके उपन्यासों को पढ़ता चला जाता था। वे प्रासंगिक विषयों पर या अखबार में आई किसी खबर से अपनी कथा का ताना-बाना बुनते थे। वे रहस्य से ज्यादा रोमांच पर जोर देते। सामाजिक विसंगतियों पर भी कड़ा प्रहार करते। वे इस बात की फिक्र नहीं करते कि वे सस्ता साहित्य लिख रहे हैं। उनका यही मानना होता कि वे सामाजिक मुद्दों को उठाते हैं। वे समाधान भी रखते हैं और इन सबको मनोरंजक तरीके से पेश करते हैं।
फिल्म निर्माताओं का भी उन पर ध्यान गया। वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यासों पर दो फिल्में भी बनीं। उपन्यास ‘लिल्लू’ पर ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ और उपन्यास ‘बहू मांगे इंसाफ’ पर फिल्म ‘बहू की आवाज’ बनी। सबसे बड़ा खिलाड़ी अक्षय कुमार की फिल्म थी और वह हिट भी हुई। इसके बाद वेद ने कुछ फिल्मों के लिए पटकथा भी लिखी।
सिनेमा से कम नहीं था उपन्यास
किसी भी सिनेमा से कम नहीं था वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास। वे अपनी कथा में पूरा फिल्मी दृश्य रच देते। जिस तरह नई फिल्म आने पर उसके टिकट पहले ही बिक जाते थे, उसी तरह वेद के नए उपन्यासों की पहले से बुकिंग हो जाती। ऐसे लेखक कम ही हुए जिन्होंने यह दौर उपने जीवन में देखा हो। जब उनका उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ छप कर आया तो इसने जैसे पूरे देश में तहलका मचा दिया। वेद प्रकाश रातों-रात मशहूर हो गए। लाखों लोगों ने इसे पढ़ा। बड़ी संख्या में पाठकों ने उन्हें चिट्ठियां भेजीं। साल 1993 में आए इस चर्चित उपन्यास की पहले ही दिन पंद्रह लाख प्रतियां बिक गई थीं।
वेद प्रकाश शर्मा 62 साल के ही थे कि उन्हें फेफड़े में संक्रमण हो गया। उनका मेरठ से लेकर मुंबई तक इलाज चला। मगर वे बच नहीं पाए और जासूसी लेखन का यह चमकता सितारा 17 फरवरी 2017 को बुझ गया। अब उनकी यादें शेष हैं। उनके पात्र पाठकों के सीने में अब भी धड़कते हैं।