मनप्रीत मखीजा
बचपन में एक कहानी सुनी थी जिसमें पेड़ और पक्षी का एक नाता सा बंध जाता था। पेड़ जानता था कि पक्षी का घोंसला सदा यहां नहीं रहेगा, परंतु पेड़ की शाखाओं पर पक्षियों ने अपनी चहक से नित्य के लिए एक सुमधुर कर्णप्रिय संगीत बुन दिया था। अंतहीन आकाश में उड़ान भरना हर पक्षी का स्वप्न है। पक्षियों का जाना पेड़ को निर्जीव सा कर गया, परंतु पेड़ केवल देना जानते है।
मैं, उस युवक की कोई नहीं। वह मेरे घर के ऊपरी मंजिल पर बने कमरे में पेइंग गेस्ट के तौर पर आया था। उसके अभिभावकों ने हर महीने के किराए का भुगतान भी समय पर किया, लेकिन कुछ नाते ह्रदय से जुड़ जाते हैं। मुझ अधेड़ उम्र की अकेली रह रही स्त्री को पैसे से मोह नहीं था। मुझे तो मोह लिया था उस युवक की चंचल आँखों ने। सीढ़ियों से उतरते-चढ़ते वह अपनी निश्छल मुस्कान से मेरी ममता को जगा देता था।
पाक कला में निपुण होने के बाद भी उस बच्चे से यह पूछना कि, खाना तुम्हें पसंद तो आता है न बेटा! मेरे भीतर एक संकोच के साथ ममत्व के भाव को भी जगाता था। मैं एक मां की तरह उसकी फिक्र करने लगी थी। लेकिन मां होने और मां जैसा होने का प्रयास करने में फर्क तो है। कभी-कभी सत्य जानते हुए भी हम स्वयं को झुठलाते है। मन को बहलाते हैं।
सत्य यही रहा कि वह मेरे हिस्से कभी नहीं आएगा। अब जब वह जा रहा है तो मेरे हिस्से आई हैं कुछ स्मृतियां। उसे समय पर जगाने की जिम्मेदारी, उसके कॉलेज से लौटने पर उसे ताकते हुए कभी उसकी बातें तो कभी उसकी चुप्पी को सुन लेने भर से उसके साथ होने का बोध कराना, रविवार की शाम उसके साथ चाय पीते हुए जीवन को जीने और महसूस करने के भाव। उसका चले जाना उतना ही तय था जितना सालों पहले मेरा ये जान लेना कि मैं निसंतान रहूंगी, लेकिन अब ये भी तय है कि मैं ममत्व भाव से शून्य न कभी थी, नहीं रहूंगी।
(मनप्रीत मखीजा लघुकथाकार हैं)