-अतुल मिश्र

यह बात उस समय की है, जब हम देश की राजधानी में थे और कोई काम करने की मजबूरी की वजह से ‘माया’ जैसी खोजपूर्ण समाचार-पत्रिका में अपने  मतलब का काम कर रहे थे। बचपन से जासूसी करने का हमारा शौक इस दिशा में बड़ा काम आया। यूं तो कुछ न कुछ लिखने के लिए हम लिखते ही थे, मगर इन बातों से मकान मालिक और परचून वाले का पेट नहीं भरता था। लिहाजा, ‘नौकरी, क्यों करी’ जैसी पुरानी कहावत को दरकिनार करके हमें नौकरी की शरण में जाना पड़ा। शौक अगर ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तरह आजीविका से जुड़ जाता, तो ‘सोने में सुहागा’ जैसी बात हो जाती है।

यही कोई चौरासी-पिच्यासी की बात रही होगी। ताज होटल में हो रहे ‘विश्व जासूस सम्मेलन’ की खास कवरेज के लिए प्रधान संपादक द्वारा हमें चुना गया था। पंद्रह दिवसीय इस सम्मेलन में हम अपने तत्कालीन प्रिया स्कूटर से रोजाना पहुंच जाते थे। कवरेज के दौरान हमें सबसे बड़ी दिक्कत भाषा की रहती थी, जिसके लिए हमने आयोजक वेद भसीन को अपना दुभाषिया बना रखा था, जो इस बात का फायदा उठा कर हमें अतिशयोक्ति से भरी बातें समझाते रहते थे। छोटे न हो पाने की वजह से वे दिल्ली के एक बड़े प्राइवेट जासूस थे। उनकी कार तमाम खतरों का सामना करने की सामर्थ्य रखती थी। पूरी गाड़ी बुलेट प्रूफ तो थी ही, उसकी पिछली डिग्गी में मशीनगनें लगी होने की भी गैर पुख्ता जानकारी हमको दी गई थी।

 मई-जून की भीषण गर्मी में भी काले कोट और सफेद शर्ट पर टाई से अपनी गर्दन को दबाए कुछ दक्षिण भारतीय जासूसों से भी हमें यह कह कर मिलवाया गया कि ये लोग दक्षिण में अच्छा काम कर रहे हैं। हमने खुशी व्यक्त की कि वे दक्षिण में रह कर वहां अच्छा काम कर रहे हैं। तभी हमें बताया गया कि किसी भी जासूस की जो सबसे बड़ी पूंजी जो होते हैं, वो उनके काले चश्मे ही होते हैं। इनके बिना वह रात में भी जासूसी नहीं कर सकता।

जर्मनी, फ्रांस, रूस और अमेरिका जैसे देशों के जो प्राइवेट जासूस इस सम्मेलन में शिरकत कर रहे थे, उन सब पर भी हमारी निगाहें थीं। कुछ जासूस कोल्ड ड्रिंक्स में सुरा मिला कर पी रहे थे, तो कुछ लोग इसके बिना भी कोल्ड ड्रिंक्स ले रहे थे। ‘इंग्लिश वाइन’ पीकर इंग्लिश बोलते जासूसों की अंग्रेजी समझने में हमें कोई दिक्कत इसलिए भी नहीं हुई, क्योंकि हम भी इंग्लिशमय हो चुके थे।

 पूरे पंद्रह दिन हमने जासूसों की जासूसी की, मगर उन दिनों चर्चित हो रहे ‘करमचंद जासूस’ की तरह कोट की जेब से गाजर निकाल कर खाते हमने किसी जासूस को नहीं देखा।

* (लेखक अतुल मिश्र पत्रिका ‘माया’ के संवाददाता रह चुके हैं। इन दिनों स्वतंत्र लेखन)

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