-नीता अनामिका
अगर मेरे पास घड़ी को
पीछे करने की शक्ति होती,
तो गली के मोड़ में उस घर में वापस जाती
जिसे नीचे एक कोयले की दुकान थी।
वह घर जो जब मैं बच्ची थी, घर था।
मुझे पता है कि मैं इसे अब पहले से
कहीं अधिक पसंद करूंगी।
वह घर जहां लौटने के लिए
स्कूल से भागती हुई आती थी
बरामदे में बिखरी चमकती धूप को
नन्हीं मुट्ठियों में जकड़
सर्दी की ठंड पर खिलखिलाती
बारिश में घर में सूखते कपड़ों से लिपट
उनकी भीनी खुशबुओं में भीग उठती
और न जाने कितने यादों के पन्ने
किताब की जिल्द के उपर नजर आता
एक नाम ‘तेइस नंबर’।
सोचती हूं-
अगर मैं अपनी मां के पास वापस आ सकूं
और उनकी गोद में सिर रख कर
एक बार फिर वही सारी बातें सुन सकूं
जो उन्होंने मुझसे कही थीं,
तो मैं ऐसे सुनूंगी जैसे मैंने
पहले कभी नहीं सुनी।
क्योंकि वह अच्छी तरह से जानती थी कि
जीवन में क्या होने वाला है।
…और मेरे पिताजी जिन्होंने
कभी कुछ नहीं कहा मुझसे,
बरामदे में रखी कुर्सी पर
घंटों उनका खामोश बैठना,
उनकी खामोशी मुझे तब तक
याद रहेगी जब तक मैं जीवित हूं।
तब वास्तव में महत्त्वपूर्ण नहीं लगा था
यह सब कुछ जो था मेरे आसपास,
पर अब मैं इसे फिर से
जीने के लिए लौटना चाहूंगी।
मां और पिताजी के लिए
और भी बहुत कुछ करना है,
उन्हें उनके हिस्से की खुशियां
दे सकूं जिनके वो हकदार थे,
मैं थोड़ा और देना चाहूंगी
लेकिन अफसोस साल बीतते चले जाते हैं
और हम पीछे कभी नहीं लौट सकते।
लेकिन अभी भी देर नहीं हुई
चाहे हम किसी हवेली में
पैदा हुए हों या छोटे से घर में,
जिन्हें हम प्रिय मानते हैं,
उनके लिए कुछ और करने के लिए
हम अब भी शुरुआत कर सकते हैं।
(नीता अनामिका कोलकाता में साहित्यिक संस्था वाराही की प्रमुख हैं)