– संजीव सागर
इक सिवा तेरे अब नहीं दिखता,
है मगर मुझको रब नहीं दिखता।
हर तरफ है बहार का मौसम,
क्या करूं मैं वो सब नहीं दिखता।
है नजारा तिरा ही सहर से शब,
तू जरा पूछ कब नहीं दिखता।
आइना रोज देखता हूं मैं,
पहले सा चेहरा अब नहीं दिखता।
हिज्र से दोस्ती है रतजगों की,
वस्ल का ही सबब नहीं दिखता।
शायरी का मुकाम गिरता है,
बज्म में जब अदब नहीं दिखता।
बूंद गहरी उतर गई उसमें,
यूं ही सागर गजब नहीं दिखता।