जासूस डेस्क
नई दिल्ली। सुप्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल को प्राय: उनकी कृति ‘रागदरबारी’ से याद किया जाता है। जबकि उन्होंने 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं। इनमें ‘सूनी घाट का सूरज’ और ‘मकान’ की भी चर्चा होती है। ‘राग दरबारी’ का तो अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। यही नहीं अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर एक पूरी पीढ़ी ने इसके नाट्य रूपांतर को कई कड़ियों में देखा। यह हैरत है कि उनके उपन्यास ‘आदमी का जहर’ की कम ही चर्चा होती है।
जासूसी लेखन पर अनुसंधान करने वालों को आश्चर्य होता है कि इस पर न साहित्य जगत के लोग चर्चा करते हैं और न आलोेचक। हालांकि कुछ प्रतिष्ठित आलोचकों का कहना था कि शुक्ल ने भी अपने इस उपन्यास को कोई तवज्जो नहीं दी। ऐसा क्यों किया उन्होंने, ये तो वही जानें। मगर क्या वे ‘आदमी का जहर’ से वे डर गए थे। क्या वे जासूसी लेखन को साधारण मानते थे? ऐसे कई सवाल है जिसका जवाब देने के लिए आज यह लेखक इस दुनिया में नहीं है।
विसंगतियों पर किया प्रहार
श्रीलाल शुक्ल को उनके धारदार व्यंग्य लेखन के लिए जाना जाता है। वे उत्तर प्रदेश सरकार में पीसीएस अधिकारी थे। बाद में वे पदोन्नत होकर आईएएस अधिकारी बन गए थे। वे सरकारी नौकरी करते हुए भारतीय राजनीति और समाज को करीब से देख रहे थे। यही वजह है कि उनके उपन्यासों में आजादी के बाद नैतिक मूल्यों में आ रही गिरावट को का चित्रण बारीकी से किया। ग्रामीण और शहरी समाज के बीच बढ़ती खाई और और विसंगतियों को भी अपनी रचनाओं से छुआ। राग दरबारी ने तो भारत की आत्मा को ही टटोला। इस उपन्यास के लिए उन्हें लेखक को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। बाद में उनको भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया। इसके अलावा उन्हें उनकी उत्कृष्ट कृति ‘बिसरामपुर का संत’ के लिए व्यास सम्मान मिला। साहित्य में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने श्रीलाल शुक्ल को पद्म भूषण से सम्मानित किया।
कानून में झोल को देखा
‘राग दरबारी’ की तरह श्रीलाल शुक्ल भारत में कानून व्यवस्था में विसंगतियों पर एक बेहतरीन उपन्यास लिखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने काफी अध्ययन भी किया, पर सेहत खराब रहने से वे लिख नहीं पाए। इस लिहाज से देखें तो उनका जासूसी उपन्यास ‘आदमी का जहर’ एक तरह से पूर्व पीठिका था जिसमें वे अपराध और कानूनी दांवपेच को सामने रख रहे थे। वे यह भी समझ रहे थे कि बदलते दौर के साथ इंसान में कितना जहर भर रहा है। यह जहर आ कहां से रहा है, वे यह आगे चल कर बताना चाहते थे। मगर फिर सवाल उठता है कि क्या वे अपने ही उपन्यास ‘आदमी का जहर’ से डर गए थे।
कोई दो राय नहीं कि श्रीलाल शुक्ल ने अपने साहित्य सृजन से न केवल बड़े साहित्यकारों में स्थान बना लिया था बल्कि उनकी काफी प्रतिष्ठा हो गई थी। सवाल यह उठता है कि क्या शुक्ल अपराध-कथा और जासूसी लेखन को लुगदी साहित्य मान कर ऐसा दोबारा न लिखने का मन बना लिया था। क्या उनको लगता था कि इस तरह के लेखन से उनकी प्रतिष्ठा कम हो जाएगी।
‘आदमी का जहर’ : समाज की बदलती अवधारणा
कुछ कमियों को दरकिनार कर दें तो ‘आदमी का जहर’ श्रीलाल शुक्ल का का बेहद रोचक उपन्यास है। एक जाने-माने लेखक ने पहली बार ऐसा उपन्यास रचा जिसमें अपराध के साथ पारंपरिक जासूसी कथा भी थी। अब पता नहीं क्यों उन्होंने इसे एक मनोरंजक उपन्यास मान कर जासूसी लेखन से ही कन्नी काट ली। जबकि इसमें मनोरंजन के अलावा एक पुरुष मनोविज्ञान से लेकर समाज की बदलती अवधारणा पर एक विमर्श भी था। यह एक सामान्य अपराध कथा तो नहीं था जिससे शुक्ल जी को लगा कि हमें इस तरह का लेखन नहीं करना है।
मगर जहर तो बढ़ता चला गया
श्रीलाल शुक्ल ‘आदमी का जहर’ लिख कर क्या बताना चाहते थे। यह उपन्यास पढ़ कर महसूस कर सकते हैं कि आदमी में जहर कम होने के बजाय दिन-प्रति दिन बढ़ता जा रहा है। इसमें समाज को आईना दिखाया है लेखक ने। कहानी का सार यह है कि हरिश्चंद्र की पत्नी बेहद सुंदर है, लेकिन उसको लगता है कि पत्नी का किसी और से संबंध है। एक दिन रूबी को वह एक होटल में किसी अजित सिंह नाम के शख्स के साथ पाता है। इस घटना के बाद हरिश्चंद्र अजित को गोली मार देता है। पुलिस जब तफ्तीश शुरू करती है तो पता चलता है कि अजित की मौत गोली लगने से नहीं जहर से हुई है। अब सवाल यह है कि जहर दिया किसने। शक की सुई रूबी पर है। इसके बाद की कहानी को श्रीलाल शुक्ल ने अपने कौशल से आखिर तक बांधे रखा है। कोई दो राय नहीं कि उन्होंने अपने लेखन से बेहद पठनीय जासूसी उपन्यास लिखा।
सब कुछ ठीक ठाक नहीं समाज में
श्रीलाल शुक्ल ने इस उपन्यास से बताया है कि आदर्श दिखने वाले दंपति के घर में सुख शांति ही देखने को जरूर मिलती है, मगर ऐसा है नहीं। सुंदर पत्नी का पति किस तरह हर समय शक में जीता है, यह भी उन्होंने दिखाया। उन्होंने दिखाया कि जहर देने का आरोप लगने पर पति ही उसे निर्दोष बताने लगता है। पुलिस को शक अपनी जांच के आधार पर है। ऐसे में पत्रकार उमाकांत रूबी की मदद करता है। जो लोग शुक्ल के इस उपन्यास को दोयम मानते हैं, उन्हें इसे समाजशास्त्रीय विवेचन के आधार पर देखना चाहिए। हालांकि शुक्ल जी जानते थे कि उनके कुछ आलोचक और समुदाय से कई लोग इसे अच्छा नहीं मानेंगे। मगर वे यह भी जानते थे कि मनुष्यों में धीरे-धीरे ‘जहर’ भर रहा है।