-सुगंधि कुलसिंह
आज मैं गई यह सोच कर
बिताने कुछ वक़्त उनके साथ…
खोल के अपना बंद दरवाजा,
दो दिन के बाद
जोर से कांप रहे हैं
लगातार उनके हाथ-पांव।
गर्म कपड़े पहन कर
चलते फिरते हैं
कुछ ओढ़ कर
किनारे पर बैठ कर
जलाने वाले
हर चीजों को जला कर
पहुंचाता है आराम
अपने आपको पहले से ज्यादा।
सात-आठ कप
गर्मा-गर्म चाय पिला कर
आनंद दिलाता है
उलझे हुए मन को,
आजकल सुट्टा मार कर
पान चबा कर और
बीयर शॉप खाली करके
महसूस कराते हैं
अलग सा अनंत।
ऋण मुक्ति उनको
रजाई के अंदर घुस कर
बाहरी दुनिया से छुप कर
बनाते हैं अपनी
छोटी सी अलग सी
यूटोपिया रील,
फुटपाथ पर पड़े
जलते तलते उबलते
चटपटे घिनौने लोग
ढूंढते हैं संतुष्ट कराने
अंतःकरण की तंत्रिकाओं को।
मुश्किल है एक दूसरे से भी
आंखें मिलाना
क्योंकि-
बीच में जिद करता है
कुहासा धुंआ सा
आज तो सचमुच
मुझे लग रहा है कि
दिल्ली को बहुत शीत बुखार है।
(सुगंधि कुलसिंह श्रीलंका की कवयित्री हैं)