डा. शशि रायजादा

लखनऊ। बचपन से ही हमें कहानियां पढ़ने का बेहद शौक रहा। पर हमारे घर में बस एक बाल पत्रिका चन्दामामा ही आती थी। बाकी लोटपोट, नंदन, वेताल, मैंड्रेक, इन्द्रजाल कॉमिक्स, चम्पक सब हम दोस्तों से उधार मांग कर पढ़ते थे, वो भी छुप-छुप कर। बचपन में तो ननिहाल में लायब्रेरी से ला-ला कर खूब किताबें पढ़ीं हैं। किस्सा तोता-मैना का, वेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, अलादीन के किस्से, पंचतंत्र की कहानियां, जातक कथाएं … मतलब जो मिल जाए बस।

आलम ये था कि नई क्लास की किताबें जिस दिन आती थीं, उस दिन मन करता था कोई हमें किसी काम के लिए न कहे। हिन्दी व अंग्रेजी विषय की सारी कहानियां एक ही दिन में निपटा दी जाती थीं। अब वो चाहे प्रेमचंद की, फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां हों या हजारी प्रसाद द्विवेदी जी, परसाई जी के व्यंग्य हों या फिर रामधारी सिंह की कविताएं हों।

यादों के झरोखों से इब्ने सफी और हम
कुछ बड़े हुए तो मशहूर लेखक इब्ने सफी के जासूसी उपन्यास पढ़ने का चस्का लग गया। दरअसल कभी भी जेब खर्च को तो एक पैसा भी नहीं मिलता था, तो कहानी की किताबें कहां से आती..? भैया अपने एक दोस्त से, जो किराए पर उपन्यास लाया करता था, उससे मांग कर ले आते थे। टाइम की बड़ी बन्दिश होती थी। एक दिन के किराए में हम तीनों लोग उस उपन्यास को पढ़ते थे, पहले भैया का दोस्त, फिर भैया और सबसे आखिर में हम… जिसमें हम दोनों भाई बहन को ये काम छुपा कर करना होता था। घर में उपन्यास पढ़ने पर ही सख़्त पाबंदी थी, फिर जासूसी हो तो, तौबा तौबा…! उस पर यह डर कि यदि पकड़े गए तो पिटाई तो होगी ही और डैडी तो किताब की चिन्दियां कर डालेंगे, फिर दुकान वाले की किताब के पैसे कौन भरेगा..?

इतना खतरा होने पर भी, सच मानिए, इतना नशा था, उस समय जासूसी उपन्यास पढ़ने का, कि जब बाकी लड़कियां सामाजिक उपन्यासों की प्रेम कथाएं पढ़ती थीं, हम इब्ने सफी पढ़ते थे। हम दोनों मम्मी-डैडी के बाहर जाने का इंतजार करते थे। रात का खाना खा के दोनों रोज ही टहलने जाते थे, तब हमारा गोल्डन टाइम होता था। कभी-कभी तो समय की इतनी कमी होती थी कि आगे के पेज भैया व शुरू के पेज हम, एक साथ, बीच के पन्नों को खड़ा कर के, दोनों लोग एक एक तरफ गर्दन टेबल पर झुका कर साथ साथ पढ़ते थे। फिर भी जब कभी भी अधूरी पढ़ी किताब वापस करनी पड़ जाती थी, तो कई दिन तक मूड खराब रहता था।

आप सोच नहीं सकते कि हम कितने दीवाने थे। इस दीवानगी की चरम सीमा तब पार हो गई, जब इब्ने सफी का कोई नया उपन्यास आया था और दसवीं के बोर्ड की हमारी परीक्षाएं चल रही थीं। आजकल की तरह उस समय परीक्षाओं  के बीच कोई अंतराल नहीं होता था। इसलिए बोर्ड के टाइम टेबल में सबसे कठिन पेपर जो फिजिक्स का होता था,  हमेशा सोमवार को रखा जाता था, जिससे उसके पहले रविवार की छुट्टी मिल सके। शनिवार को भैया इब्ने सफी जी का नया उपन्यास दोस्त से मांग कर लाए थे। अगले दिन ही वापस करना था। उनका तो पेपर नहीं था, क्योंकि वो तो उस समय कॉलेज में पढ़ते थे, इसलिए उन्होंने तो रात में पढ़ डाला। अब हम अपने को रोक नहीं पाए। सुबह-सुबह ही, फिजिक्स की किताब के बीच रख कर चुपचाप पढ़ डाला। किसी को कानों कान खबर न हुई। कोई सोच भी नहीं सकता था कि बोर्ड के फिजिक्स के पेपर से पहले कोई नॉवल भी पढ़ सकता है। यदि न पढ़ पाते तो शायद फिजिक्स पढ़ने में हमारा मन भी न लगता, दिमाग उसी में जो लगा रहता।

हम पढ़ने में अच्छे थे। सच मानिए, उसके बाद फिजिक्स पढ़ने में हमारा इतना मन लगा कि उसमें बहुत अच्छे नंबर आए। ये किताबें हमें रिफ्रेश करती थीं। ये सिलसिला कॉलेज तक चला, फिर ये किताबें आनी बंद हो गईं। हमारे विनोदी स्वभाव पर इब्ने सफी के उपन्यासों का बड़ा असर रहा। उनमें जासूसी के साथ साथ मजाकिया बातचीत की अहम भूूमिका थी, जिसने उन उपन्यासों को पढ़ने वाले हर व्यक्ति को अपनी तरफ खींचने का एक जबर्दस्त जादू था। सबसे बड़ी बात यह थी, कि भाषा के स्तर में कहीं भी छिछोरापन या घटियापन नहीं था। लुगदी साहित्य में शुमार होने के बावजूद बहुत ऊंचे स्तर के साहित्य पढ़ने वाले भी उन जासूसी उपन्यासों को बड़े चाव से पढ़ते थे। बाद में कर्नल रंजीत व और कई जासूसी उपन्यास लेखकों को भी पढ़ा, पर उनके टक्कर का कोई नहीं था।

इन किताबों को पढ़-पढ़ कर हमारी आब्जरवेशन पॉवर बहुत तेज हो गई थी। अत: जब हम टीचिंग प्रोफेशन में आए तो अपने जासूसी ज्ञान से अपने छात्रों की खुराफातों को बहुत जल्दी पकड़ लेते हैं।

सबसे बड़ी उपलब्धि तो इब्ने सफी के इन उपन्यासों को पढ़ने की हम तब समझे जब एक साल टीचर्स डे पर छात्रों ने हमें ‘लेडी शर्लक होम्स’ का खिताब दे डाला।

* (लखनऊ निवासी डा. शशि लंबे समय से शिक्षण क्षेत्र से जुड़ी रही हैं।)

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