-अतुल मिश्र
कई मर्तबा ऐसा होता है कि कोई गाना अपने सुने जाने के बाद हमारा पीछा ही नहीं छोड़ता। हमारी जुबान पर वह इस तरह चढ़ जाता है कि पूरा दिन उसी की पहली लाइन गुनगुनाने में निकल जाता है। कल एक गाने की पहली लाइन ने परेशान किए रखा। शायद टीवी पर हमने सुहावने मौसम के दौरान ‘दस बहाने करकै लै गई दिल, लै गई दिल…’ गाना क्या सुना, पूरे दिन में वही एक गाना गूंजता रहा। परचूनी की दुकान पर मल्का की दाल लेने गए, तो एकदम से दुगने रेट सुन कर अफसोस करने की बजाय दाल के ‘मल्लिका’ होने के सम्मान में ही गुनगुनाना पड़ा- ‘दस बहाने करके लै गई दिल, लै गई दिल…!!’
किसी सरकारी विभाग के छोटे से कुछ बड़े अधिकारी के पास गए, तो अपना काम न होने के मलाल करने की बजाय मन यही गाना गुनगुनाने में लगा था। निजी कंपनी द्वारा दिया जा रहा बिजली का भारी बिल जमा करते वक्त भी मन पर यही गाना काबिज था कि- ‘दस बहाने करके लै गई दिल…!!’ एक बार गई हमें ऐसा भी लगा, जैसे ‘दस बहाने करके लै गई बिल…लै गई बिल।’ यहां कभी-कभी आने वाली बिजली के बहाने और हमारे द्वारा उसका बिल अदा करने की मजबूरी इसकी अहम वजह बन चुकी थी। बिल अदा करने के बाद मन फिर उसी असली लाइन पर लौट आया।
एक अदद किसी का दिल लेने के लिए दस ही क्या, सौ बहाने भी गीतकार करवा सकता है। बहरहाल, सवाल यहां अंकगणित का नहीं है कि दस बहाने किए या सौ। सवाल इस बात का है कि बहाने बना कर किसी का दिल लेने की ऐसी कौन-सी जरूरत आन पड़ी कि गीतकार का उस पर कलम चलाना जरूरी हो गया। सिर्फ इतनी सी बात मालूम करने को कि दिल ले जाने वाली ने सिर्फ दस बहाने ही किए थे या पूरे सौ, यह जानने के लिए हमने अपने एक गीत-प्रेमी मित्र को फोन मिलाया।
‘वो जो गाना तुम कल गुनगुना रहे थे, उसमें दिल लेने के लिए हीरोइन ने कितने बहाने किए थे, बताओगे?’
‘शायद दस ही किए थे। क्यों?’ जवाब के बदले मित्र ने सवाल भी किया।
‘कुछ नहीं, बस, यूं ही पूछ रहा था।’ हमने टालना चाहा।
‘ऐसा नहीं हो सकता। कोई न कोई तो वजह होगी ही।’ उसने टटोला।
‘हां, यार, कल बिना किसी बहाने के कोई हमारा दिल ले गई और बहुत तकादे करने पर भी अब वापस नहीं कर रही।’ हम अपनी बात कह कर उस हीरो के बारे में सोचने लगे, जो पूरी फिल्म में बिना दिल के काम करता रहा होगा।