अंजू खरबंदा

बरसों की साधना पूरी होने जा रही है। घर का इंटीरियर लगभग पूरा हो चुका है। दो चार दिनों में ही शिफ्टिंग शुरू हो जाएगी। घर का निरीक्षण करने आए तो बेटी अदिति ने चहकते हुए कहा- ‘मां, ये देखिए यह आपका कमरा!’

उस कमरे में कदम रखते ही एक पल को ऐसा लगा मानो किसी ने शोभा के सपनों में रंग भर दिए हों। खिड़की से छन कर आती रोशनी से से सराबोर हवादार ताजगी से भरपूर कमरा! ऐसे ही कमरे की कल्पना तो की थी शोभा ने, जब वीरेन से शादी की बात चली थी, तब उसके चेहरे पर एक रंग आता एक जाता था।

‘अरे, नहीं रे! हमने क्या करना कमरे का। तुम बच्चे अपना अपना-अलग कमरा लेना।’ प्रत्यक्ष रुप में शोभा मुस्कराती हुई बोली।

‘मां सारी जिंदगी तो हमने एक छोटे से घर में गुजार दी। आज किस्मत से इतना बड़ा घर मिल रहा है तो आप मना क्यों कर रहे हो?’ बेटे राहुल ने प्रश्नसूचक निगाहों से मां की ओर देखते हुए पूछ ही लिया।

“अरे इस उम्र में हमें अलग कमरे की क्या जरूरत भला।” शोभा खिड़की से खुले आसमान की ओर देखते हुए धीरे से बुदबुदाई।

‘इस उम्र में ही तो अलग कमरा चाहिए हमें!’ साथ खड़े वीरेन हंसते हुए बोले।

‘क्या आप भी! कुछ तो शर्म कीजिए, बच्चे जवान हो रहे हैं।’

‘शोभा, हमने सारी जिंदगी एक कमरे के घर में निकाल दी। कभी इत्मीनान से घड़ी दो घड़ी साथ बैठने का अवसर ही कहां मिला।’

‘तो क्या अब वो दिन लौट आएंगे।’ पति की आंखों में देखते हुए ये प्रश्न यकायक शोभा के मुंह से निकला।

‘भले ही वो दिन न लौटें, पर कम से कम एक दूसरे के साथ समय बिताने, हंसने-बोलने, रूठने मनाने का अवसर तो खूब मिलेगा न।’ यह कहते कहते वीरेन ने अपनी पनीली आंखें शोभा के चेहरे पर टिका दी।

‘अच्छा अब अपनी बातें छोड़िए और मेरी बात सुनिए। ये कमरा आपका और पापा का। मैंने कह दिया तो कह दिया, बस…।’ अदिति अपने चिरपरिचित अंदाज में बोली तो पूरा फ्लैट सम्मिलित ठहाकों से गूंज उठा और खिड़की पर बैठी चिरैया भी उनकी खुशी में चहकने लगी।

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