– डा. शशि रायजादा
लखनऊ। लगभग ढाई सौ से ऊपर जासूसी उपन्यास लिखने वाले अपने समय के चर्चित लेखक असरार अहमद उर्फ इब्ने सफी इलाहाबाद जिले के नारा कस्बे में छब्बीस जुलाई 1928 को जन्मे। वे तीन दशकों तक बिना किसी घटनाओं को दोहराए, जासूसी उपन्यासों के बेताज बादशाह रहे। शुरुआती दिनों में उन्होंने उर्दू पत्रिका ‘निकहत’ के लिए लिखा, जो इलाहाबाद से निकलती थी। वे मूलत: कविताएं व गजलें लिखा करते थे और बतौर शायर अपनी पहचान बनाना चाहते थे।
उनके जासूसी लेखन की शुरुआत भी अजीब ढंग से हुई। ‘निकहत’ पब्लिकेशन के अब्बास हुसैनी जी को जासूसी उपन्यासों की सीरीज छापने का आइडिया आया। उनके कहने पर ‘असरार अहमद’ साहब ने एक हफ्ते में उपन्यास तो लिख दिया पर इस बात पर अड़ गए कि वे अपने इस नाम को उपन्यास के लेखक के रूप में नहीं देंगे, क्योंकि वे शायरी ‘असरार अहमद’ के नाम से ही करते थे और उसी नाम से अपना करियर बनाना चाहते थे। जासूसी उपन्यास उन्होंने गुजारा चलाने भर के लिए लिखा था। इसे वे अदब का हिस्सा नहीं मानते थे।
काफी मान मनौव्वल के बाद हुसैनी साहब ने दूसरा नाम सुझाया-‘इब्ने सफी’ क्योंकि असरार साहब के पिता का नाम सफी अहमद था। ‘इब्न-ए-सफी’ मतलब-‘सफी का बेटा’। फिर भी कुछ जम नहीं रहा था, तो उसे ‘इब्न-ए-सफी, बी.ए.’ किया गया। उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से बीए पास किया था और उस समय बीए पास करना एक बड़ी उपलब्धि हुआ करती थी। और इस तरह जन्म हुआ उर्दू और हिन्दी के जासूसी उपन्यासों के महान लेखक ‘इब्ने सफी, बी.ए.’ का।
उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ छपा था, फिर जैसे जैसे बाजार में उपन्यास आते गए, निकहत पब्लिकेशंस और इब्ने सफी लोगों के जेहन पर छाते चले गए। उन्होंने फिर मुड़ कर नहीं देखा। शुरुआती सात या आठ उपन्यासों के लेखन में उन पर अंग्रेजी उपन्यासों का असर रहा, लेकिन जल्दी ही पूरे हिंदुस्तानी परिवेश में रचे नायाब व अनूठे प्रयोग करते हुए उन्होंने रहस्य और रोमांच से भरपूर उपन्यास लिखे।
उनकी कथाओं में विज्ञान कथा की शुरुआत भी मिलती है। उनके उपन्यासों का संसार जितना रहस्यमय था, उतना ही हैरतअंगेज भी। उस जमाने में हाथी की तरह बलशाली, जेब्रा की तरह धारीदार काल्पनिक मनुष्य, आंखों में कैमरे फिट किए पक्षी, उस जमाने की कहानी में ‘यूएफओ’ (उड़न तश्तरी) का जिक्र व मशीनों से कृत्रिम तूफानों का उदय, ये सब उनकी बड़ी अनोखी कल्पना को दर्शाता है। यहां तक कि उनके खलनायक भी पाठकों पर अपनी एक अलग छाप छोड़ते थे और कई सालों तक याद रहते थे।
हिंदी पाठकों की बेचैनी को देखते हुए हर महीने एक उर्दू का और दूसरा उसी का हिंदी रूपांतर छपने लगा। पात्र के नाम भी बदले जाते, पर कहानी वही रहती। जैसे इमरान हिंदी में राजेश हो जाते। कर्नल फरीद हिंदी में कर्नल विनोद, पर कैप्टन हमीद हिंदी में भी हमीद ही रहे। ये अनुवाद प्रेम प्रकाश करते थे।
उपन्यास की कीमत चार आने से शुरू हुई थी जो अंतिम उपन्यास में आठ रुपए तक पहुंची। उन दिनों किराए पर उपन्यास लेकर पढ़ने के बावजूद पचास से साठ हजार कॉपियां आराम से बिक जाती थीं। इनके उपन्यासों ने जासूसी दुनिया में एक अलग ही जगह बना ली थी। इनकी किताबें ब्लैक तक में बिकती थीं।
उन उपन्यासों में जासूसी के साथ साथ मजाकिया बातचीत की अहम भूमिका थी, जिसने उन उपन्यासों को पढ़ने वाले हर व्यक्ति को अपनी तरफ खींचने का एक जबर्दस्त आकर्षण था। सबसे बड़ी बात ये थी, कि भाषा के स्तर में कहीं भी छिछोरापन या घटियापन नहीं था। लुगदी साहित्य में शुमार होने के बावजूद बहुत ऊंचे स्तर के साहित्य पढ़ने वाले भी उन जासूसी उपन्यासों को बड़े चाव से पढ़ते थे।
जावेद अख़्तर का कहना है कि ‘शायद इब्ने सफी के उपन्यास पढ़ने की ललक न होती तो मैं उर्दू पढ़ना नहीं सीख पाता।’ अगाथा क्रिस्टी तक कहा करती थीं कि जासूसी उपन्यासों के क्षेत्र में वे अकेली नहीं हैं, हिंदुस्तान के इब्ने सफी की किताबों की बिक्री उनसे उन्नीस नहीं है।
ब्लिट्ज (उर्दू संस्करण) के संपादक और मशहूर शायर हसन कमाल अपने बचपन के लखनऊ में बिताए दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि जिस दिन इब्ने सफी का उपन्यास दुकान पर आना होता था, घंटों पहले दुकान के सामने लाइन लग जाती थी। उनके उपन्यास ऐसे बिकते थे, जैसे राशन की दुकान पर शक्कर। इब्ने सफी अकेले ऐसे लेखक रहे जिसने उस दौर में लोकप्रियता के मामले में ‘चन्द्रकांता संतति’ को जबरदस्त टक्कर दी और इसके साथ ही जासूसी उपन्यासों के रचयिता गोपाल राम गहमरी के जासूसी लेखन के क्रम को आगे बढ़ाया।
आजादी के बाद 1952 में इब्ने सफी पाकिस्तान चले गए, लेकिन वहां से तहरीरें बराबर भिजवाते रहे। ईमानदारी व जुबान के पक्के लेखक ने कभी अपना वादा टूटने न दिया। जब भारत-पाकिस्तान युद्ध छिड़ा तो दोनों की डाक व्यवस्था बंद हो गई, जिस वजह से एक बार लगा कि युद्ध के दौरान उनके उपन्यास पाठकों को नहीं मिल पाएंगे। पर फिर इसकी भी एक तरकीब निकाली गई। तहरीर को पहले इब्ने सफी लंदन भेजते, फिर वहां से ये घूम के हिंदुस्तान आती।
साल 1980 में इस महान लेखक ने अपना आखिरी उपन्यास ‘आखिरी आदमी’ उसी तय सीमा से भेज कर अपना वादा निभाया। जासूसी कहानियों जैसे विचित्र संयोग उनके जीवन में भी हुए कि वो अपने जन्मदिन यानी 26 जुलाई 1980 को ही दुनिया से रुखसत हो गए।
हाल ही में हार्पर कॉलिन्स ने उनकी 13 किताबें पुनर्प्रकाशित की हैं। वक्त की परतों से निकाल कर, कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालय उनके लेखन पर शोध कर, शोधपत्र भी प्रकाशित कर रहे हैं। शायद इसकी वजह इब्न-ए-सफी की हर उपन्यास में कुछ नया व पिछले से बेहतर बनाने की ललक ही रही होगी।