-संतोषी बघेल

तुम्हारी मुस्कुराहटों में लिपटी है
मेरी आंखों की नमी,
मेरे शब्दों में उकरते प्रेम में
तुम्हारे विराग की कसक है,
कभी पिघलती हूं तुम्हारे खयाल से,
कभी तुम्हारा प्रण
मुझे कठोर बना जाता है।

मेरी गुजरी जिंदगी के बिखरेपन में
हमारे सिसकते प्रेम के स्मृति चिह्न हैं,
वो पल मुझे आज भी
मुंहजुबानी याद है।
सरसराती ठंडी हवाओं में
तुम्हारे साथ की तपिश थी जैसे
बिखर जाना तिनके की तरह।

तुम्हारे अपनत्व के भार से
तुम में ठहरा हुआ था
मेरा वक़्त सारा
और खामोशी से तुमने
एक स्मित खींच कर
अपने सम्मोहन से
चकित कर दिया था मुझे।

सुनो, वो एक पल ही काफी था,
मुझे प्रेम डगर पर ले जाने के लिए।
वो एक एहसास ही काफी था
तुम्हें हर पल खुद में
अनुभूत करने के लिए,
एक नई दुनिया से मेरा तआरुफ़ हुआ,
और फिर एक नया दर्द ताउम्र के लिए
मैंने अपने नाम कर दिया!

तुम आज भी मुझमें बसते हो ‘जाना’,
कभी मेरी भीगी पलकों में
चमक उठते हो आंसू बन कर,
कभी टीस बन कर चुभन देते हो!
इन सबके परे भी,
हर पीड़ा के उपरांत,
पसर आई गाढ़ी खामोशी में
एक तुम ही तो हो
जो मुझे सुकून दे जाते हो,
तुम्हारी यादों का तिलिस्म ही है जो
मुझे कभी जागने नहीं देता…।

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