अतुल मिश्र

अच्छी रचनाओं की पहचान के अभाव में, अखबारों-पत्रिकाओं के संपादक जब किसी लेखक को छापना बंद कर देते हैं, तब कोई लेखक अपनी वेबसाइट बना कर अपने पाठकों सहित अधर्म का नाश करता है- यदा यदा ही धर्मस्य …। वेबसाइट उसकी ताकत होती है और उससे वह जब चाहें, तब अपनी लिखी कविताएं भी प्रकाशित कर सकता है। कवि-सम्मेलनों की तरह नहीं कि नासमझ पब्लिक ने इस चेतावनी के साथ हूट कर दिया कि अगर आगे से ऐसे कवि को बुलाया, तो संयोजक की जो गति है, वो खराब कर दी जाएगी। वे ही कविताएं वेबसाइट पर आकर चैटिंग रिक्वेस्ट के जरिए पसंद ही नहीं की जाती हैं, लोग यह भी लिख देते हैं कि ऐसी कविता ना तो आज तक पढ़ने में आई है और ना ही उम्मीद है कि भविष्य में कभी पढ़ने में आएगी।

ब्लॉग-लेखक कभी नहीं मरता। यह काम वह अपने पाठकों पर छोड़ देता है। फेसबुक पर अगर वह मौजूद है, तब तो और भी आसानी हो जाती है अपने मित्रों को अपना पाठक बना लेने में। वाल पर पोस्टिंग के बाद जो लाइक का विकल्प होता है, वो उन मित्र पाठकों के लिए होता है, जो यह निर्णय नहीं कर पाते कि बंदे ने यह लिखा क्या है? किसी भी लेखक की सफलता सिर्फ इस बात पर निर्भर करती है कि वो कितने लोगों की गर्दनें पकड़ कर उनसे अपने ब्लॉग का अनुसरण करा लेता है। 

हमने जब अपना ब्लॉग बनवाया, तो मित्रों में खलबली मची कि यह अब ‘फॉलो’ भी करवाएगा। हमें इस बात की भनक लग गई कि उनको हमारे इरादों की भनक लग गई है।  हमने बिना भनक लगे उनको मेसेज दिए कि हमारी वेबसाइट को ज्वाइन करने पर आकर्षक उपहारों की योजना है। मित्रों ने जब ज्वाइन कर लिया, तब हमने उनको अपना मशहूर ‘थैंक्स’ भिजवा दिया और लिख दिया कि ‘मित्र, इससे कीमती उपहार और क्या हो सकता है?’

इन दिनों हमें कुछ ऐसा लगने लगा है कि या तो हमारा लेखन क्रान्ति ला रहा है या कम्बख्त क्रान्ति खुद ही आ रही है।  इसी मुगालते में हमने कल एक कविता लिखी, जिस के ऊपर ‘वीररस की कविता’ शीर्षक भी लिख दिया, ताकि लोग उसे हास्य रस की समझ कर हंस न दें। किसी भी कवि के लिए यह बहुत शर्मनाक पोजीशन होती है कि उसकी वीररस की कविताओं पर लोग जोरदार ठहाके लगाएं और हास्य रस की कविता पर रोने लगें कि कितनी मार्मिक है।

  ‘खाली हवा से पेट की आतिश ना बुझ सकी,’ जैसे शेर कहने वाले शायर की बात से इत्तेफाक रखते हुए हमने अपने ब्लॉग डिजाइनर से उसी के द्वारा दिए गए विज्ञापनों को भी अपने ब्लॉग पर पड़वा लिया कि उनकी कीमत से बुढापा सही से गुजर जाएगा, मगर उनका रूपया किधर आ-जा रहा है, हमें और सही पूछें, तो हमारे डिजाइनर को भी नहीं मालूम।

हमने फिर भी हिम्मत करके अपनी वेबसाइट को इसी उम्मीद में जारी किए रखा कि एक न एक दिन कई लोग इन विज्ञापनों को हिट करके हमारे निजी खाते में बढ़ोतरी करेंगे। लगता है कि हमारे लिखने से देश में तो नहीं, मगर वेब डिजाइनर के जीवन में जरूर आर्थिक क्रांति आ गई है। हजारों लोग अब तक हमारी वेबसाइट पर विज्ञापनों को हिट कर चुके हैं, मगर उसका ‘रेवेन्यू’ कहां जा रहा है, हम अभी तक नहीं समझ पा रहे। आपकी समझ में अगर कुछ आ रहा हो, तो हमें जरूर बताइएगा। हमारे बैंक-खाते को इसकी सख़्त जरूरत है।

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