अतुल मिश्र
अंधेरा होने की वजह से रात का वक्त था। पहरेदार की सीटी बता रही थी कि पहरा बहुत सख्त था। श्वान-पुत्र अपनी मौजूदगी जता रहे थे। ‘जागते रहो’ की चेतावनी अपनी भाषा में भौंक कर बता रहे थे। सन्नाटा पूरी तरह चुपचाप था। ऐसे में दो कुत्तों का आपसी वातार्लाप था-
‘आदमी को यह क्या हो रहा है?’
‘कुछ नहीं घोड़े बेच कर सो रहा है।’
‘दिन भर यह क्या करता है?’
‘खा-पीकर अपना पेट भरता है।’
‘कुछ भी खाने से नहीं डरता है?’
‘इसीलिए तो यह बेमौत मरता है।’
‘सुना है कि यह अपना मुल्क भी बेच खाता है?’
‘हां, और उसके बाद यह डकार भी नहीं ले पाता है।’
‘नेताओं का नाम इसी सिलसिले में आता है?’
‘इनसे तो अपना पूर्व-जन्म का नाता है।’
‘हमें अभी कितनी देर और भौंकना होगा?’
‘जब तक ताश खेलते न दिखें चोर, पहरेदार और दरोगा।’
‘उसके बाद हमें क्या करना है?’
‘आदमी की अक्ल की तरह हमें घास नहीं चरना है। चोरों द्वारा फेंके गए बिस्कुटों से ही अपना पेट भरना है।’
‘यह तो सरासर धोखा है, गद्दारी है।’
‘दिन में यह सब आदमी करता है, रात में हमारी बारी है।’
‘गुरु, आप तो वाकई महान हैं।’
‘चोप्प बे, यहां जो चारों तरफ मकान हैं, इनकी दीवारों के भी कान हैं।’
दोनों कुत्ते सुबह निकलने से पहले ही शांत हो गए। सूरज जब निकलने में अलसा रहा था। चोर और पहरेदारों से दरोगा अपना कमीशन बना रहा था।
(लेखक राजनीतिक पत्रिका ‘माया’ के पूर्व संवाददाता रहे हैं।)