हर कलम जब कलाम करती है!

झुक  अदब  से  सलाम करती है,
हर कलम जब कलाम करती है!

इक वरक  जब मिले कहीं कोरा,
दर्द  फिर  उसके  नाम  करती है!

सोच रख  के खयाल  में सब की,
पहलू कितने  ही आम  करती है!

तुम मिलाना  नजर जरा बच के,
वो नजर  कत्ले-आम  करती है!

बच निकलता हूँ  हादसों से रोज,
माँ  दुआ  सुब्ह- शाम   करती है!

हर गजल  मेरी ढल  मुहब्बत में,
बस अमन  का  पयाम करती है!

धड़कनों के धड़कने का खुद ही,
जिन्दगी    इन्तजाम    करती है!

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