अतुल मिश्र

पुस्तक-प्रकाशन के बाद उस पर जब तक कोई विचार-गोष्ठी आयोजित न की जाए, तब तक लगता नहीं कि वह वाकई प्रकाश में आ गई है। लेखक ने तो अपने विचार दे दिए और उनको एक शीर्षक भी दे दिया-‘महरी नहीं आती’, मगर जिनकी कोई किताब नहीं आई, वे कैसे शांत बैठ जाते। उन्होंने लेखक को पकड़ लिया कि यार, जब तक इस पर कोई विचार-गोष्ठी न करवा लो, इसको अधूरा ही समझना। प्रकाशक को देने के बाद लेखक पर जो थोड़े-बहुत रुपए बचे थे, वे इस गोष्ठी पर काम में आ गए. विचार-गोष्ठी का आयोजन करवाया गया और जिन कवि या लेखकनुमा लोगों को इस लायक समझा गया कि इन पर विचारों का अभाव रहता है, उनसे अपने विचार प्रस्तुत करने को कहा गया।

‘यह जान कर और देख कर कि यह पुस्तक ‘महरी नहीं आती’, छप कर आ गई है, मैं इतना खुश हूं कि आपको बता नहीं सकता। इस पुस्तक में लेखक ने वह सब कह दिया, जो अगर वह उसे सीधे तौर पर समाज से कहता, तो शायद उसके चरित्र पर शक किया जाता कि भाई, सबके यहां महारियां ‘रेगुलर’ आती हैं, मगर तुम्हारे यहां एक बार आने के बाद कोई महरी फिर क्यों नहीं आती? लेकिन नहीं, लेखक ने आत्मपीड़ा को अपनी इस किताब की मार्फत कह कर कमाल कर दिया है। मैं लेखक को बधाई देता हूं और साथ ही परम पिता परमेश्वर से यह प्रार्थना भी करता हूं कि उनकी यह किताब चाहें अस्सी फीसद कमीशन पर बिके, मगर बिके जरूर।’ विचार-गोष्ठी में सबसे पहले उस विचारक ने अपने विचार प्रस्तुत किए, जो अपनी परचून की दुकान पर भी कविताएं लिख लेने की काबिलियत के लिए मशहूर था।

अच्छा शीर्षक है यह कि ‘महरी नहीं आती’। मेरी अपनी सोच है कि लेखक के घर उसे आना भी नहीं चाहिए, क्योंकि इससे लेखन में बाधाएं उत्पन्न होती हैं. मेरा तो मानना ऐसा है कि महरी किसी भी रचनाकार के घर नहीं आनी चाहिए’। यह कोई ऐसे लेखकनुमा सज्जन थे, जो ‘संपादकों के खेद सहित’ वाले पत्रों का अच्छा-खासा संग्रह कर चुके थे, छप रहे लेखकों के दुश्मन थे और इसीलिए अब समीक्षक के रूप में स्थापित होने की जुगाड़ में लगे थे।

विचारणीय पुस्तक के लेखक की पोजीशन उस शरीफ आदमी की सी लग रही थी, जिसने जान-बूझकर कोई गलती कर दी हो और अब उसके पश्चाताप के लिए अपने दोस्तों के साथ वह उस पर उनकी राय ले रहा हो कि अब क्या किया जाए? इस विचार-गोष्ठी में अध्यक्ष एक ऐसे शख्स को बनाया गया था, जो विचार करने के लिए हमेशा या तो आयोजन-स्थल के लेंटर को घूरते रहते थे या उन महिलाओं को, जो किसी भी विचार-गोष्ठी में पड़ोसी लेखक के बारे में अन्य लोगों के विचार क्या हैं, यह जानने के लिए आई हुई होती थीं।

‘मुझे यह पढ़ कर बहुत पीड़ा हो रही है कि इस पुस्तक के लेखक के घर एक महरी तक नहीं आती। यह इस मुल्क का दुर्भाग्य है और मैं तो यहां तक कहूंगा कि शासन और प्रशासन को इस दिशा में ध्यान देने की सख्त जरूरत है कि वे कौन से कारण हैं कि सबके यहां तो महरियां आती हैं, मगर लेखक के यहां नहीं?’ किसी ऐसे कवि की आवाज गोष्ठी-स्थल पर गूंजी, जो नगर-निगम के चुनाव में भारी मतों से पराजित होकर वापस कविताएं लिखने लगा था और आज इस गोष्ठी का संचालन भी कर रहा था। पुस्तक का वह लेखक, जो बैठा हुआ सब सुन रहा था और बीच-बीच में उठकर किन्हीं बेहद ‘गोपनीय’ कार्यों से बाथरूम भी जा रहा था, अब सोच रहा था कि वह आगे से या तो कोई किताब ही नहीं लिखेगा और अगर लिखी भी, तो वह इस किस्म की विचार-गोष्ठियां तो कभी भूल कर भी नहीं करेगा।

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