साहित्य संवाददाता

वाराणसी। युवा कवयित्री शिल्पी अग्रवाल का हालिया प्रकाशित काव्य संग्रह ‘शिव से मैं’ को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने काव्य रचते हुए अध्यात्म की यात्रा भी की है। वह खुद में काशी को जीती हैं- शिव से काशी/काशी से मैं/ दोनों मन में बसे हैं।  तो कभी-कभी लगता है कि उनकी मुलाकात बनारस से नहीं हो पाती है। हालांकि वे स्वयं बनारस हो जाना चाहती हैं। उनका रोम-रोम शिव को हृदय में स्थापित कर पुलकित हो उठता है। धर्म-अध्यात्म की यात्रा से गुजरते हुए जब वे भारतीय समाज को अपनी रचनाओं में उतारती हैं तो उसे विविध रूपों में देखती हैं।

‘शिव से मैं’ शिल्पी अग्रवाल का तीसरा काव्य संग्रह है। वह अपनी कविताओं में गहराई से उतरती हैं। उनको लगता है कि अब कुछ नया लिखना होगा। उन्होंने इसे यों अभिव्यक्त किया है- कुछ तो नया लिखना होगा, बारिश में फिर भीगना होगा, खोलने होंगे बंधे बाल, सूखे दिल को सींचना होगा। कुछ नया रचने के क्रम में जब शिल्पी भारतीय स्त्री को देखती हैं तो उसे अपने अस्तित्व को बचाने के संघर्ष में घिरी पाती हैं-
वे जीती नहीं कभी खुद के लिए, अनवरत जीती है, अपने प्रियजन के लिए।

यह कवयित्री प्रेम पर भी लिखती हैं। वे मानती हैं प्रेम का कोई आकार नहीं होता। यह अनुभूति है अंतर्मन की। जब प्रेम चरम पर होता है तो स्वत: ही मुस्कान खिल उठती है। शिल्पी ने प्रेम के भावों को इस तरह व्यक्त किया है- मैं लिखना चाहती थी प्रेम में कविता/मैंने छोड़ दिया कागज कोरा…। शिल्पी सच्चे प्रेम की पक्षधर हैं। वे स्पष्ट रूप से लिखती हैं- प्रेम वो है जिसमें इंद्रियां नियंत्रित रहती हैं/जिसमें प्रेम संगीत से मन /आनंदित तो होता है/पर वासना के पदचिह्न नगण्य होते हैं…।  

मनुष्य की वासनाओं का कोई अंत नहीं। कामनाओं का पूरा का पूरा वृक्ष है जो लहलहाता रहता है। शिल्पी लिखती हैं- मनुष्य की आंखों की/ पुतलियों में धंसे/कामना के वृक्ष के बढ़ने की/ गति/उतनी ही है/जितनी पृथ्वी पर/वृक्षों के कम होने की गति। इस कविता के साथ कवयित्री ने यह संकेत दे दिया कि हमारी सुख-सुविधाओं की चाह तो बढ़ रही है, मगर प्रकृति सिमट रही है। शिल्पी जब प्रकृति से जुड़ी कविताएं लिखती हैं तो वहां बारिश की बूंदें आती हैं तो चाय-पकौड़े भी आते हैं।

शिल्पी अग्रवाल अपनी कविताओं में मां को महत्त्व देती हैं। वह मां ही है जो नीम के पेड़ की छांव में कभी सिलबट्टे चलाती थी तो कभी खाट लगा कर लेती थी एक मीठी नींद। वे लिखती हैं- पेड़ घना हो रहा है/ मगर मां बूढ़ी होती जा रही है। तब कवयित्री मां को ही मनोकामना का वृक्ष मान लेती हैं और एक दिन खुद मनोकामना वृक्ष हो जाना चाहती है।

कोई दो राय नहीं कि एक श्रेष्ठ कवि वही होता है जो अपनी कविताओं में प्रेम रचते हुए लोक मंगल की ओर बढ़े। इसलिए शिल्पी कवि की अंतिम इच्छा जता देती हैं- मत पूछना कभी कवि से/उसकी अंतिम इच्छा/ क्योंकि उसने लिख दी हैं/अपनी सारी इच्छाएं कोरे कागज पर…।  काव्य संग्रह ‘शिव से मैं’ 184 पृष्ठों का है। इसमें ‘आदाब अर्ज’ शीर्षक से खंड में कवयित्री ने 174 ऐसी अभिव्यक्तियों को सामने रखा है जो बरबस ध्यान खींच लेती हैं-
तू मिलता है रोज मुझसे/ किसी अखबार की तरह/मैं तुझमें समा जाती हूं/किसी इश्तेहार की तरह।

शिल्पी अग्रवाल कुछ कविताएं हटा कर अपनी श्रेष्ठ कविताओं का चयन करतीं तो यह और बेहतर होता। उनमें लिखने का जज्बा है। एक उत्साह है अपने रचनाकर्म के लिए। काव्य संग्रह प्रकाशक रेलवे टाइम टेबल ने छापा है। संग्रह का मूल्य 250 रुपए है।  

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