-पल्लवी गर्ग
चल री सजनी अब क्या सोचे
कजरा न बह जाए रोते रोते…
एक गाना, जिसको बचपन से अब तक जितनी बार सुना, उतनी बार अलग भावनाएं उमड़ीं। अम्मा दादा को महसूस किया। खुद को उनकी जगह रख कर देखा तो हर बार आंखें नम हुर्इं…।
कभी बंबई का बाबू मूवी याद कर के, कभी बस गाने के बोल महसूस कर। आज के वक़्त में बेटे हों या बेटियां, अमूमन बारहवीं के बाद घर से चले जाते हैं। छुट्टियों में घर आते हैं। कितना ही व्यस्त क्यों न हों, बच्चों के वापस आने की तारीख याद रहती है, दिन गिने ही जाते हैं।
जब इंटर्नशिप शुरू हो जाए, तो छुट्टियां भी खत्म। जो घर आते थे, वो अलग अलग शहरों की खाक छानते हैं। फिर वो वक़्त भी गुजर जाता है, साथ लाता है एक नया एहसास…नौकरी लगने का। न लगे तो मुसीबत, लग जाए तो अजीब सी उलझन…।
जो अगर दूसरे देश चले जाएं तो अलग तरह की घबराहट। दोनों बच्चों को हॉस्टल भेजते वक़्त, मन कड़ा रखते। कब अंदर सब बिखर गया, समझ नहीं आया, जब बेटे की नौकरी पक्की हुई दो मिनट की खुशी के बाद, खुद को दिनों दिन रोते पाया। जब वो जा रहा था नए शहर, दोनों मिल कर रोए। बेटी अपने शहर से फोन पर रोई, एक जन अपनी लाल पनीली आंखें लिए एक तरफ खड़े रहे…।
बाबुल पछताए हाथों को मल के काहे दिया परदेस टुकड़े को दिल के…
फिर तब रोना आया जब पहली बार बेटे के घर गए। अब सिर्फ बेटी ही नहीं, बेटे भी विदा हो जाते हैं। अपना-अलग जहां बसाने, अपनी उड़ान लेने। यही सब बेटी के साथ भी होता है। यह आंखें नम होतीं, बिलख कर रोतीं। कभी उसकी खुशी में कभी दर्द में रोती हैं।
ममता का आंचल
गुड़ियों का कंगना,
छोटी बड़ी सखियां
घर गली अंगना।
छूट रहा छूट रहा…
छूट रहा रे…
वैसे, कभी-कभी रो लेना बहुत अच्छा होता है। बेटों को खुल के रो लेने की स्पेस देना बेहद जरूरी है…। हां, वो किस्मत वाले होते हैं जिनके बच्चे उनके आसपास रह जाएं।
