-अतुल मिश्र
‘कोई शेर उस सिचुएशन पर सुनाएं कि जब किसी की महबूबा ने किसी से मिलने का वायदा तो किया हो, मगर वह आती दिखाई न दी हो।’ आधुनिक मजनूं ने अपनी कलाई घड़ी में वह टाइम देखने की कोशिश की, जिसे बीते ढाई घंटा हो चुका था और जिससे दुखी होकर यह प्रस्ताव किसी ऐसे गुमनाम शायर के सामने रखा गया, जिसके दीवान सिगरेट की डिब्बियों पर मौजूद खाली जगहों पर दर्ज होकर अपना दम तोड़ देते हैं।
‘अर्ज किया है…!’
‘क्या किया है?’ मन ही मन महबूबा के बाप-भाइयों को कोस रहे महबूब ने उनका बुरा हश्र करने की बात सोचते हुए पूछा।
‘अर्ज़…यानी अर्ज किया है…!’ शायर ने क्लीयर करने की कोशिश की।
‘अच्छा, अर्ज़ किया है?’
‘हां, वहीं तो…!!’
‘क्या अर्ज किया है?’
‘अर्ज किया है कि ‘वो आये बज्म में इतना तो सभी ने देखा, फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही।’ कैसा है यह शेर?’
‘यह शेर आपने कहा है?’
‘आपको फिलहाल शेर से मतलब है या शायर से?’
‘मेरा इन दोनों में से किसी से कोई मतलब नहीं है। बस, मन कर रहा था कि न आने वाली महबूबा की शान में कुछ हो जाए।’
‘शेर कैसा लगा आपको?’ मुशायरे में आए श्रोताओं से यह कह कर कि ‘शेर अच्छा लगे, तो तालियां पीट कर मेरी हौसला अफजाई करें,’ अपनी तारीफ कराने वाले शायर ने अपेक्षापूर्ण सवाल किया।
‘अच्छा लगा, मगर ‘इतना तो सभी ने देखा’ की जगह ‘इतना तो ‘मीर’ ने देखा’ कह देते, तो कोई आफत थी?’
‘महबूबा जब बज़्म में आ रही है, तो मीर साहब के अलावा और लोग भी तो वहां मौजूद होंगे, जिन्होंने यह देखा होगा कि चिरागों की रोशनी का आलम क्या रहा।’
‘यह बात भी सही है, मगर शेर में से ‘मीर’ का नाम हटाने की क्या जरूरत थी कि उन्होंने देखा?’ ताउम्र महबूबा का इंतजार करने के हौसलों से परिपूर्ण महबूब ने टाइम पास करने के लिहाज से पूछा।
‘काहे का देखा? जब वो बज़्म में आए, तो उसके बाद जब चिरागों में रोशनी ही नहीं रही, तो मीर साहब ने अंधेरा ही तो देखा होगा, जिसमें सुनते हैं कि हाथ को हाथ भी सुझाई नहीं देता, तो फिर महबूबा की तो बात ही अलग है।’
‘लो, आ गई वो।’ महबूब ऐसे चीखा, जैसे ‘मीर’ की ‘वो’ के आने पर पूरी बज्म के लोग भी नहीं चीखे होंगे। बताते हैं कि इस चीख से घबरा बिजली का एक तार टूट कर कहीं नीचे गिर पड़ा और उसके बाद बिजली के खंभों ने आगे की सप्लाई बंद कर दी, यानी चिरागों में रोशनी न रही।