-रश्मि वैभव गर्ग
एक समुद्र समाहित
रहता है मुझमें…।
उसकी नमी मेरे
अंतरतम को नम कर देती है,
उसका खारापन मुझे
मेरे ही वजूद से मिलवाता है,
एक समुद्र समाहित
रहता है मुझमें…।
उसका प्रवाह घटता
और बढ़ता रहता है,
लेकिन उसकी मर्यादा
समाहित रहती है मुझमें,
एक समुद्र समाहित
रहता है मुझमें…।
मिलती हूं यदा कदा,
उसके अबोल..सीप-शंखों से
तो सुनती हूं वो शब्द जो
कंठ की सीमा न लांघ सके,
एक समुद्र समाहित
रहता है मुझमें…।
वो अपने खारेपन में,
मुझे जीवन की
सीख समझाता है,
जो चला जाता है,
वो लौट कर कहां आता है!
ढूंढती हूं स्वयं को
समुद्र की लहरों में,
लापता पाती हूं स्वयं को,
समुद्र चुपके से मुस्काता है…
कितना मुश्किल है स्वयं में
स्वयं को बचा पाना!
एक समुद्र समाहित
रहता है मुझमें…।
सीखा है मैंने समुद्र से
मीठा होना इतना
आवश्यक नहीं,
जितना सीमा में बंधे रहना!
एक समुद्र समाहित
रहता है मुझमें…।
(कोटा निवासी रश्मि गर्ग कथाकार और कवयित्री हैं)