अनुभूति गुप्ता

1.

बाजारवाद के दौर में
खोजता है वह
चिड़िया के नीड़ भर नभ
भले ही खाली हो जेब
मगर रिश्तों से भरा हो सब
जहां वो स्वतंत्रता से रचा बसा हो
हर भोर खिलखिला कर हंसा हो

2.

उस पुरुष को पता है
जिम्मेदारियों का बांझपन
बालपन का खालीपन
और जवानी का सूनापन।
वो महल नहीं, बस चाहता छत
एक छोटा सा अपनेपन का घर।

3.

इस अधूरेपन का एहसास
जैसे प्रांगण पड़ा पायदान
उससे भलीभांति परिचित है मालिक सा
कुछ अपना कुछ पराया
कुछ भरता हुआ किराया

जिधर ढलती सांझ के
साथ बन बैठता है रूखा सूखा
एक पंछी 55 वर्ष का भूखा।

(कवयित्री-चित्रकार साहित्यिक पत्रिका अणुवीणा की संपादक हैं।) 

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