संजय स्वतंत्र

राजनीति निर्मम होती है। आज जो साथ है, कल वह रहेगा या नहीं कहा नहीं जा सकता। राजनीति भाई-भाई में, भाई-बहन में  या चाचा भतीजे में, पति-पत्नी में भी कटुता और अविश्वास पैदा कर देती है। यह राजनीति ही है जो अपने गलियारे में स्त्रियों को बहला-फुसला कर लाती है और उनकी गरिमा तार-तार करती है। यह राजनीति ही है जो सत्ता के साथ सहवास करते हुए आर्थिक भ्रष्टाचार को जन्म देती है। लेखक-कथाकार और पत्रकार मुकेश भारद्वाज का सद्य प्रकाशित उपन्यास ‘नक्काश’ सत्ता के इसी चेहरे को बेनकाब करता है।

इस समय भारतीय राजनीति आर्थिक भ्रष्टाचार के दौर से गुजर रही है। चपरासी से लेकर मंत्री स्तर तक भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं। दिन-प्रति-दिन इसका दायरा बढ़ रहा है। कदम-कदम पर आम आदमी इससे बावस्ता है। जितना बड़ा काम, उतना ही बड़ा करप्शन। कहां हुआ, कैसे हुआ, इसे देखने की फुर्सत नहीं है हमारे सिस्टम को। पहले यह काम मीडिया करता था, मगर पत्रकार अब सुविधाजीवी हो गया है। उसे गुमान है कि खबरें उसके पास चल कर आती हैं। सच्चाई यह है कि वह अब ‘स्टेनो जर्नलिज्म’ और विज्ञप्ति पत्रकारिता कर रहा है। उधर पुलिस तंत्र के हाथ छोटे हो गए हैं। जब तक कोई शिकायत नहीं करता, तब तक पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती। अब शिकायत भी कौन करें? परस्पर करोड़ों रुपए का लेन-देन कर रहे दोनों पक्षों को कोई दिक्कत नहीं तो भ्रष्टाचार सामने आए तो कैसे। फिर न्यायपालिका भी क्योंकर ले संज्ञान?

‘नक्काश’ महज जासूसी कथा भर नहीं है। यह भारतीय राजनीति के साथ बदलते सामाजिक परिवेश से भी साक्षात्कार है। यह समाज में नैतिक मूल्यों के पतन और स्त्री-पुरुष के स्वार्थपूर्ण संबंधों की कहानी भी है। इस पूरी कथा की धुरी में युवा जासूस अभिमन्यु है। वह सब कुछ घटित होते देख रहा है। जो दिख रहा है, उसे दिखा भी रहा है। श्री भारद्वाज ने जेम्स बांड के बतर्ज अपना ‘देसी बांड’ गढ़ा है। वह मारधाड़ तो नहीं करता मगर अपनी रोमानियत से जेम्स बांड को टक्कर जरूर देता है। वह गोली की रफ्तार से दौड़ कर घटनास्थल पर पहुंचता है। अपने सूत्रों का पीछा नहीं छोड़ता।

पिछले कुछ सालों में देश में आवासीय निर्माण क्षेत्र में बड़ा उछाल आया है। ‘नक्काश’ के लेखक ने इस क्षेत्र में कंसट्रंक्शन कंपनियों  की गलाकाट प्रतियोगिता को सामने रखा है। वहीं उन्होंने आवास मंत्री के दफ्तर में पर्दे के पीछे चल रहे भ्रष्टाचार को परत-दर-परत उधेड़ दिया है। आवासीय सोसायटियां बना रहे बिल्डरों की कुछ सालों में चांदी हो गई है। वे येन-केन प्रकारेण अपने टेंडर पास कराना चाहते हैं। अब वे दलालों से काम नहीं कराते बल्कि स्वयं मंत्री के दफ्तर में बैठे दिखते हैं। आवास विभाग से होते हुए फाइलें जब संबंधित मंत्री के निजी सचिव तक पहुंचती हैं तब शुरू होता असल खेल। उपन्यासकार ने आवास मंत्री के दफ्तर में चल रहे दो बड़े बिल्डरों अमृतलाल और रोहित कापड़ी के बीच तीखी प्रतिद्वंद्विता दिखाई है, वहीं राजनीतिक गलियारे में चल रहे भ्रष्टाचार की कलई भी खोली है। उन्होंने दिखाया कि यहां स्त्रियों की आकांक्षाएं किस कदर असीम हो गई है।

‘नक्काश’ अपनी राह से भटके समाज की बदरंग हो रही तस्वीर को भी सामने रखता है। एक ऐसा समाज जहां स्त्रियां सहजता से उपलब्ध मान ली गई हैं। राजनीति में शीर्ष पर बैठे लोग कुछ भी कर सकते हैं। मंत्री अपनी उम्र से आधी युवती से शादी कर सकता है। वह बेटी की उम्र की अपनी निजी सचिव से हमबिस्तर हो सकता है। सत्ता के करीबी लोग औरतों के जिस्म से खेलते हैं और जब मतलब निकल जाता है तब उसकी हत्या करने या कराने से गुरेज नहीं करते। ‘नक्काश’ में दो स्त्रियों की हत्या हुई है। एक मंत्री की बेहद खास सचिव है तो दूसरी नृत्यांगना है। दोनों सत्ता के ‘खेल’ को देख रही है। एक स्वयं शिकार हो रही हो दूसरी का शिकार किया जा रहा है।

युवा जासूस अभिमन्यु को इन्हीं दो महिलाओं के कत्ल का राजफाश करना है। हत्यारे कौन लोग हैं, इसका पता लगाना है। मगर इस कहानी के कैनवास पर और भी बहुत कुछ है। मंत्री को बड़ी कुर्सी चाहिए तो बिल्डर को पैसा। स्त्री पात्रों को सत्ता की भागीदारी और विलासितापूर्ण जीवन चाहिए। मंत्री की पत्नी राधिका और बेटी चित्रांगदा सत्ता के बीच रहते हुए अपनी महत्वाकांक्षों को पूरा करना चाहती हैं। जो जायरा खान जेएनयू में अभिमन्यु की दोस्त थी और वाम राजनीति करते हुए नहीं थकती थी, वह एक दिन सत्ता में शीर्ष पर बैठे देवराज सिंह की विशेष कार्य अधिकारी बन जाती है। वह मंत्री के उस निजी सचिव की जगह लेती है जिसकी कुछ दिनों पहले ही हत्या हुई है।

मुकेश भारद्वाज ने बुजुर्गों में बढ़ते अकेलापन के सन्नाटे को भी सुना है। चाहे वो बुजुर्ग सरदारजी हों या मयूर विहार में रहने वाली मिसेज शर्मा। यों तो यह अकेलापन हर उम्र के लोगों में बढ़ रहा है। श्री भारद्वाज ने तीनों स्त्री पात्रों मौलश्री, कमल कुंदन और जायरा खान के अकेलेपन को भी टटोला है। लेकिन यह भी तय है कि अकेले रह रहे बुजुर्ग हमारे समाज के आंख-कान हैं। बुजुर्ग सरदारजी और मिसेज शर्मा की मदद के बिना हत्या के दोनों मामले सुलझाना अभिमन्यु के लिए आसान नहीं था।

उपन्यास का उद्देश्य व्यापक और स्पष्ट है। उन्होंने पुलिस तंत्र में छोटे अफसरों से बेगारी कराने से लेकर पैसा और पावर के फेर में फंसे समाज को आईना दिखाया है। इसे देख कर आपको वितृष्णा हो सकती है, मगर इससे बचने का कोई रास्ता नहीं दिखता।

अभिमन्यु इस कहानी का नायक है। मगर बाकी पात्रों ने भी गहरी छाप छोड़ी है। अभिमन्यु वर्तमान को जीता है, मगर जब वह अतीत में जाता है तो लेखक उसे कुछ ज्यादा ही विस्तार दे देते हैं। खास तौर से पिछले एक दो दशक की राजनीतिक घटनाक्रम को याद करते हुए। अलबत्ता अभिमन्यु की भावना हर उस आम आदमी की भावना है जो इस उपन्यास में मुखरित हुई है। एक ईमानदार लेखक का दायित्व है कि राजनीति में आई कलुषता और उससे समाज पर पड़ रहे प्रभाव को वह चिह्नित करे। मुकेश भारद्वाज ने यही कर्तव्य निभाया है। इसी क्रम में उन्होंने अभिमन्यु के माध्यम से कहलवाया है- कितनी आसानी से सरकार नागरिकों को भेड़ों के झुंÞड में बदलने में कामयाब हो जाती है।

उपन्यास ‘नक्काश’ की भाषा प्रांजल है। कथाकार की भाषा जब सरल और सहज होती है तो पाठक उसे पढ़ता चला जाता है। इस कसौटी पर देखें तो मुकेश भारद्वाज की भाषा लचीली और प्रवाहमय है। उन्होंने बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करते हुए पात्रों के अनुकूल अंग्रेजी शब्दों से परहेज नहीं किया। उनकी भाषा में रवानी इसीलिए है क्योंकि किसी शब्द को लेकर उनका पूर्वग्रह भी नहीं है। ‘नक्काश’ की एक खूबसूरती यह भी है कि बीच-बीच में शेरों-शायरी का प्रयोग पाठकों को सहज बनाए रखता है। यथा-तेरे इश्क की इंतहा चाहता हूं, मेरी सादगी देख क्या चाहता हूं।

‘नक्काश’ सत्ता के गलियारे में बिछी सुंदर कालीन के नीचे जमा गंदगी को दिखाने का प्रयास है। मुकेश भारद्वाज ने अभिमन्यु शृंखला का तीसरा उपन्यास रचते हुए संकेत दे दिया है कि वे हिंदी जासूसी लेखन में एक भारतीय जेम्स बांड तैयार कर रहे हैं जिसे ईपीडब्लू के लिए कोई पॉलिटिकल आलेख नहीं लिखना है बल्कि अभी और भी गु्त्थियां सुलझानी है। दो सौ पेज में सिमटे इस उपन्यास को वाणी प्रकाशन ने छापा है। मूल्य सवा तीन सौ रुपए है। पाठकों को अभिमन्यु शृंखला के चौथे उपन्यास की भी प्रतीक्षा रहेगी।

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