अतुल मिश्र
अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए यह निहायत जरूरी है कि इतना अर्थ यानी पैसा तो आदमी के पास हो ही कि वह उसे व्यवस्थित कर सके। जब अर्थ ही नहीं होगा, तो वह खुद को सुधारने के अलावा और कर ही क्या सकता है? अर्थव्यवस्था को सुधारना किसी भी मुल्क की सरकार के लिए उतना ही जरूरी होता है, जितना वोट-व्यवस्था को सुधारना। वोट-व्यवस्था सुधारने के चक्कर में सरकारें अपनी आवाम की अर्थव्यवस्था सुधारने के एलान करने लग जाती हैं।
गरीब वोटर, जिसका अर्थव्यवस्था से कोई लेना-देना नहीं होता, वह खुश होता है यह सुन कर कि उसकी किसी व्यवस्था को सुधारने की बात चल रही है और इसीलिए उसे अगली बार जब चुनाव होंगे, तो ध्यान रखना है कि उसका कीमती कहा जाने वाला वोट उसी पार्टी को जाए, जिसने कम से कम इस किस्म की बात तो की है।
कोई भी गरीब अर्थ का सही मतलब इसीलिए नहीं समझ पाता कि उसका इससे कोई दूर का भी रिश्ता नहीं होता। जिन लोगों का होता है, वे उसे सुधारने की बात करके उसकी दुखती नस पर हाथ रख देते हैं कि भाई, तुम्हारी जो अर्थव्यवस्था है, वो सही नहीं है और उसे हम सुधारना चाहते हैं। गरीब सोचता है कि जैसे वह अक्सर अपना छप्पर सुधारने में लग जाता है, वैसे ही उसकी जिन्दगी का अर्थ यानी मायने को व्यवस्थित करके सुधारने की कोई गंभीर बात चल रही है। वह खुश होता है कि एक दिन इसी तरह उसका छप्पर भी हमेशा के लिए सुधर जाएगा और ज्यादा तेज हवा चलने पर उसे पकड़ कर बैठना नहीं पड़ेगा। वह मान लेता है कि भाई, सुधार लें, लेकिन कुछ इस तरह से सुधारने की बात करें कि हर चुनाव से पहले हर बार ना सुधारनी पड़े।
यह बात अब हर गरीब, चाहें वो शहर में रह कर गरीब पैदा हुआ हो या गांव में रह कर, समझने लगा है कि उसकी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए जो भी पैसा किसी न समझ में आने वाली अंग्रेजी स्कीम के तहत आएगा, वह उस पर बाद में पहुंचेगा, पहले उसके इलाके के अफसरान के हाथ लगेगा। वही यह निर्णय लेंगे कि यह रकम उसे गरीब मानते हुए दी जाए या नहीं? और अगर दी भी जाए, तो कितनी उसे दी जाए और उसमें से कितनी वे खुद अपनी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए रखेंगे?
गरीबों के भी अब दो वर्ग हो गए हैं। एक गरीब वे हैं, जो अपने पूर्व जन्मों के किन्हीं पापों की वजह से गांव में रह कर गरीब हुए हैं और दूसरे वे हैं, जो शहर में रह कर भी अपने इन्हीं जन्मों के कर्मों की वजह से गरीब बने हुए हैं।
शहरी गरीबों की अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए सरकार ने अपनी तिजोरी खोल दी है और ग्रामीण गरीबों को ये मूक संकेत भी दे दिए हैं कि अगर हमारी सरकार हमेशा बनी रही, तो एक दिन उनकी भी यह तिजोरी खोली जा सकती है। गरीब और भी गरीब बनने में अपनी आस्था व्यक्त करने लगता है कि किसी भी कीमत पर उसे गरीब ही बने रहना है। अगर वह गरीब नहीं रहेगा, तो सरकारी मदद उसके दरवाजे से वापस लौट जाएगी।
इसी उम्मीद में कई गरीबों ने अपनी गरीबी को कायम किया हुआ है कि मर जाएंगे, मगर सरकारी मदद लिए बिना गरीब नहीं रहेंगे। सरकार भी यही चाहती है कि जब तक मदद न मिल जाए, गरीब लोग गरीब ही बने रहें। इसी में उनकी, सरकार की और इस देश की भलाई है।