-संजय स्वतंत्र

चाहे कवि हो या शायर या फिर गीतकार। चाहे कोई कहानीकार। वह समाज को उसकी संवेदना से जोड़ता है। वैसे नौकरी की भागदौड़ और डेडलाइन में पिसते हुए किसे सूझती हैं कविताएं और कहानियां। मगर जब संघर्ष गहरा हो तो गीत के बोल कंठ से फूट उठते हैं। गीत या कविता कागज पर उतरने लगती है। चाहे वह प्रेम के लिए हो या समाज की दशा-दुर्दशा पर। जिंदगी की जद्दोजहद और अपनी आत्मा की पुकार पर जनसत्ता से मुंबई निकले हमारे पूर्व साथी इरशाद के लिखे गीतों को सुनता तो दिल में धमनियों में नदी बह उठती। दिल कह उठता..इरशाद।

इरशद का लिखा पहला गीत मैने फिल्म ‘चमेली’ में सुना। शायद आपको भी याद हो-

बहता है मन कहीं/कहां जानती नहीं/कोई रोक ले यहीं/ भागे रे मन कहीं/आगे रे मन/चला जाने किधर जानू ना…

यही वह दौर था। जब मैं स्वेच्छा से हिंदी सिनेमा के गीतों को सुन कर ‘म्यूजिक रिव्यू’ लिखा करता था। उन दिनों जिन गीतकारों ने प्रभावित किया उनमें पुराने साथी संजय मासूम के साथ इरशाद कामिल भी थे। उनके गीतों में एक उमंग महसूस होता। उनके भावों में गहराई थी। उनके शब्द सीधे दिल में उतर जाते। ऐसा लगता कि कामिल मन को टटोलना बखूबी जानते हैं।

मुझे याद नहीं फिल्म ‘जब वी मेट’ में उनका लिखा यह गीत कितनी बार सुना। अगर आप सुन लें तो यह दिन भर आपके जेहन में बना रहेगा-

ना है ये पाना न खोना ही है/तेरा न होना जाने क्यूं होना ही है/तुम से ही दिन होता है/सुरमई शाम आती है/ तुमसे… तुमसे ही…।

पंजाब विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद साहित्यिक अभिरुचि के इरशाद ट्रिब्यून और एक्सप्रेस समूह में काम काम करते हुए कुछ नया करने की ललक थी। एक रात खबर संपादित करने के बाद घर लौटते समय यही ख्याल आया कि यार यही करते रहना है या नया कुछ करना है? फिर क्या था। संघर्ष किया और अंतत: बालीवुड में अपने लिए जमीन बनाई। कभी कविता पर पीएचडी करने वाले इरशाद हिंदी सिनेमा के आज लोकप्रिय गीतकार हैं। यहां उन्होंने अपना हक अपनी काबिलियत के आधार पर मांगा। तभी तो वो फिल्म ‘रॉकस्टार’ के लिए यह गीत लिख पाए होंगे-साड्डा हक एत्थे हक। यह गीत इंसाफ और अधिकार के लिए लड़ रहे हर मनुष्य का एंथम है।      

आज से कुछ समय पहले इरशाद कामिल ने एक चर्चा में कहा था कि जब कोई लेखक या कवि-गीतकार कलम उठा लेता है कोई भी विषय हो, समय का चिंतन या समाज इन सबका विश्लेषण होना चाहिए। कविता और गीत मनुष्य मन को टटोलते हैं। वे मानते हैं कि साहित्य की विरासत को आगे ले जाना किसी लेखक की जिम्मेदारी नहीं। उसे अपना काम करना होता है। जो अपको बेहतर इंसान नहीं बनाता उस पर सवाल होना चाहिए। 

साहित्य को लेकर उनके मन में तस्वीर साफ है। भाषा पर गहरी पकड़ रखने वाले इरशाद ने बताया कि नई पीढ़ी की क्या भाषा है। जैसे फिल्म ‘मेरे ब्रदर की दुलहन’ का गीत लीजिए- मेट्रोमोनियल सी हों आंखें/काम में न हो लेजी/जिसमें हो थ्री की तेजी। इसी तरह इरशाद ने लिखा-कैसा ये इश्क है, अजब सा रिस्क है। शुद्ध भाषा के पक्षधर कितना शोर मचाएं, मगर यह सच है कि हमारे बच्चों की क्या भाषा होने वाली है। समय से आगे चलना ही एक रचनाकार का धर्म होना चाहिए।

पिछले दिनों लेखक-संपादक मुकेश भारद्वाज से बातचीत के दौरान इरशाद ने कहा कि साहित्य या साहित्यकार को इस तरह से नहीं देखा जा सकता कि उसे कोई जिम्मेदारी निभानी चाहिए। उन्होंने चार्ल्स डिकेंस को याद करते हुए उनका हवाला दिया-मैं लिखना पसंद करता हूं। मैं कोई डाकिया नहीं जो संदेश देने जैसा बेकार का बोझ जियूं। इरशाद ने इस बातचीत में कहा कि मैं साहित्य और सिनेमा के बीच एक पुल बनना बनना चाहता हूं। क्योंकि दोनों अलग वृत्त बन गए हैं।

 निश्चय ही उन्होंने मुकम्मल बात कही, तभी तो वे कामिल हैं। अंत में फिल्म ‘सुल्तान’ में लिखे गीत से इरशाद भाई के शब्दों में अपनी बात कहूंगा-जग घूमया थारे जैसा न कोई/ जग घूमया थारे जैसा नहीं कोई। … कामिल की कलम को सलाम।   

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