संगम पांडेय

इस बार संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार सुरेन्द्र शर्मा को मिलना एक अच्छी खबर है। हालांकि उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि वे ‘उपन्यास का रंगमंच’ कर रहे हैं, लेकिन हिंदी के जितने क्लासिक उपन्यासों को उन्होंने मंचित किया है वह शायद एक कीर्तिमान है। उनकी पहली ही प्रस्तुति ‘रंगभूमि’ काफी लोकप्रिय रही थी जिसमें सूरदास की भूमिका में एनके पंत हमेशा देखने वालों को याद रहेंगे। प्रेमचंद के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद के इस प्रतिनिधि पात्र को निर्देशक और अभिनेता ने मिल कर एक अविस्मरणीय रंगत दी थी।

संयोग से सुरेन्द्र शर्मा के लगभग सभी औपन्यासिक मंचन मैंने देखे हैं, और संयोग से वे उपन्यास भी प्राय: पहले पढ़े हुए थे। ‘बूंद और समुद्र’ और ‘मैला आंचल’ जैसे उपन्यासों को नाट्यालेख में तब्दील करना और फिर उनकी संवेदना और भावभूमि के साथ मंच पर पेश करने के लिए जो पाठकीय तादात्म्य और निर्देशकीय तल्लीनता चाहिए उसका मणिकांचन योग उनकी प्रस्तुतियों में दिखता है।

उन्होंने लगभग एक दर्जन उपन्यासों को इस सिलसिले में मंच पर पहुंचाया है, जिनमें गबन, त्यागपत्र, चित्रलेखा, बाणभट्ट की आत्मकथा, निर्मला, झांसी की रानी, संक्रमण आदि शामिल हैं। अभी हाल में उन्होंने प्रेमचंद के जीवन पर भी एक नाटक का मंचन किया।

सुरेन्द्र शर्मा के मंचनों में परिवेश आम तौर पर चरित्रांकनों के जरिए ही बनता है। ‘मैला आंचल’ की लछमी दासिन और ‘बूंद और समुद्र’ की ताई जैसे मुश्किल किरदार उन्होंने बहुत अच्छे से बनाए हैं। इसी तरह ‘त्यागपत्र’, जिसमें कहानी बताई जा रही है, में बताए जाने के ठहराव, उससे जुड़े पात्र के भीतरी अंतर्द्वंद्व आदि ही एक इंटेंसिटी में बदलते जाते हैं। इसी क्रम में उनकी एक उपन्यासेतर प्रस्तुति में रामकृष्ण परमहंस का पात्र मुझे भुलाए नहीं भूलता। जिसमें परमहंस अपनी अतींद्रियता में मानो साक्षात सामने आ खड़े होते हैं।

हालांकि सुरेन्द्र शर्मा भी एनएसडी से पढ़े हैं। पर उनकी प्रस्तुतियां कुछ अनोखा करने के बजाय अपने कथानकों की साधारणता को पहचानती हैं। ये प्रस्तुतियां तस्दीक करती हैं कि साहित्यिक मंचनों के लिए जैसा साहित्यिक मूड चाहिए वो उनमें है। (फेसबुक वॉल से साभार)

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