अतुल मिश्र
निजी तौर पर वे एक जासूस थे। गैर निजी तौर पर लोग उन्हें ‘करमचंद’ के नाम से पुकारते थे। अपनी खूबसूरत असिस्टेंट ‘किटी’ की वजह से भी वे पूरे शहर में मशहूर थे। लोग उनकी बड़ी उपलब्धियों में उनकी जासूसी से अधिक उनकी लेडी असिस्टेंट किटी को शुमार करते थे, जिसकी बदौलत वह एक बड़े जासूस बन सके। उनकी इस सफलता के पीछे लोग इसी औरत का हाथ मानते थे। हाईस्कूल की पढ़ाई येन-केन प्रकरेण कभी पूरी न कर पाने के बाद उनके पिताजी ने उनके द्वारा अपने खानदानियों की गतिविधियों की तमाम सूचनाएं प्राप्त करते रहने के बाद जासूसी के क्षेत्र में अपनी किस्मत आजमाने की नेक सलाह दी, तो करमचंद की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। इसमें पिताजी की संचित दौलत बड़ी काम आई, जिससे आफिस कहलाने लायक एक दुकान के अलावा उसमें बैठी रहने वाली एक असिस्टेंट भी चुन ली गई। अब जरूरत सिर्फ ऐसे केसों की रह गई थी, जिन्हें सुलझाने के लिए लोगों का यहां आना बाकी था।
गाजर खाने की अपनी बुरी आदत के बावजूद करमचंद के पास केस तो आने लगे थे, मगर उनमें से अधिकतर इतने छोटे होते थे कि उन्हें सुलझाना वे अपनी शान के खिलाफ समझते थे। इस बारे में उनकी असिस्टेंट किटी का मानना था कि स्कूल में अगर किसी बच्चे के टिफिन से लंच गायब होने की जांच जैसे केस भी अगर मिल रहे हैं, तो ले लेने चाहिए, ताकि आफिस का किराया निकल सके। बॉस होने के नाते करमचंद को हालांकि यह बात अच्छी नहीं लगती थी, मगर किटी को अच्छी लगने की वजह से वे इसे अच्छी मान लेते थे।
पहले करमचंद के मूली खाने की अपनी आतंरिक जरूरत की वजह से किटी ने आफिस में बैठने से साफ इनकार कर दिया था। समस्या-समाधान के लिए मूली की जगह गाजर इस्तेमाल करने का विकल्प चुना गया और तब से किसी ने करमचंद को मूली खाते नहीं देखा। जब भी देखा, जेब से गाजर निकाल कर खाते ही देखा।
काला चश्मा और कॉलर चढ़ा काला ओवरकोट करमचंद को इतने पसंद थे, कि वे इन्हें जाड़ों में तो पहनते ही थे, फील्ड में जाते वक्त गर्मियों में भी पहन लेते थे। जासूसी की इस परंपरागत वेशभूषा से उन्हें उतना ही लगाव था, जितना अपनी असिस्टेंट किटी से। यह अलग बात है कि वे इसे कभी जाहिर नहीं कर पाते थे। अपने मन की बात जाहिर न करना भी जासूसी का एक अहम हिस्सा माना जाता है। कई मर्तबा फील्ड में जब कोई अपराधी किटी को हसरत भरी निगाहों से देखता था, तो जोर से गाजर चबा कर वह उसे अपने भावी हश्र की सूचना दे दिया करते थे।
जासूस तो अपने देश में बहुत हुए हैं, मगर कहते हैं कि ‘करमचंद’ जैसा जासूस न तो आज तक पैदा हुआ और न ही उम्मीद है कि भविष्य में कभी हो पाएगा। न भूतो, न भविष्यति। इसकी कई सारी वजहें थीं, मगर गाजर, किटी, काला चश्मा और काला ओवरकोट इसकी अहम वजहें थीं।
अस्सी के दशक में करमचंद और किटी हमें अक्सर दिल्ली के श्रीराम सेंटर में काफी पीते मिल जाया करते थे। लेकिन हमने पत्रकार होने के बावजूद उनसे कभी यह नहीं पूछा कि मित्र, बाकी सब तो ठीक है, लेकिन आपके केस सुलझाते वक्त मूली की बजाय गाजर खाने का रहस्य आज तक समझ में नहीं आया।