नई दिल्ली। किस्सागोई प्रियंका ओम सिद्धहस्त हैं। वे अपनी सृजना में स्त्रियों का वजूद बारीकी से टटोलती हैं। दो कहानी संग्रह ‘वो अजीब लड़की’ और ‘मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है’ से अपनी पहचान बना चुकीं प्रियंका ने स्त्री-पुरुष संबंधों में आ रहे विघटन को समझने और दिखाने की कोशिश की और प्रतिफल में सामने आया उनका उपन्यास ‘साज-बाज’। इसमें उन्होंने एक युगल की जिंदगी को एक नए कैनवास पर यूं देखा- कभी बेतरतीब पंक्ति तो कभी उदासी से तर एक पुकार। जिंदगी क्या है? एक अरसा गुजर जाने के बाद मुड़ कर देखो तो एक मुकम्मल कहानी ढली है।

उपन्यास ‘साज-बाज’ एक ऐसी युवती की कहानी है जो पुरातन बातों और घिसी-पिटी परंपराओं की विरोधी है। उसकी मां इस दुनिया में नहीं है। साज-बाज की कथा वही सुना रही है। हर मां की तरह उसे भी बेटी देविका की फिक्र है। यह मां की भावना है जो यह मानती है जो यह मानती है कि विवाह एक बिनबोला समझौता है। शिवेन और देविका की कहानी हर उस युगल की है जिसकी शादी पारंपरिक तरीके से होती है। देविका इससे पहले एक प्रेम से गुजर चुकी है। अदीब से प्रेम का बुखार तब उतरता है जब देविका को पता चलता है कि वह उसके विचारों से कितना भिन्न है। हालांकि शिवेन से विवाह के बाद उससे भी मतभिन्नता होती है। कहीं न कहीं अहं है तो कभी बच्ची जैसी जिद।  

संबंधों में तीखापन इतना आगे बढ़ गया कि देविका खुदकुशी करना चाहती है। मगर वह ऊहापोह में रहती है। उसका मानना है कि शादी में दोस्ती का होना बहुत जरूरी है। जब दोस्ती और प्रेम का एक दूसरे में विलय हो जाता है तब प्रेम कालजयी हो जाता है। शिवेन और देविका में नेह के बावजूद छोटी-छोटी बातों पर द्वंद्व है। यह देविका ही थी जिसे तमाम विरोध के बाद भी शिवेन से  शादी की। यहां तक कि पंडित के मना करने पर भी कभी अलग न होने के लिए आठवां फेरा लिया था।

यह हनीमून का समय था। शिवेन मां के कहने पर मन्नत मांगने मंदिर जाना चाहता है। इस मुद्दे पर नोक-झोंक के रूप में देविका से पहली लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई की प्रकृति लंबे समय तक बनी रही। पति-पत्नी में द्वंद्व बढ़ता गया। देविका की तीखी नोक-झोंक बढ़ती रही। शिवेन को उसका मित्र सुदीप प्रेम का पाठ पढ़ाता है। उसे महसूस होता है कि रिश्ता धीरे-धीरे मेहंदी सा रचता है।  प्रेम में रंगरेज हो जाना चाहिए। सुदीप-ज्योति के वैवाहिक जीवन से शिवेन ने विवाह और प्रेम का अर्थ जाना।

कथानक की सूत्रधार बनी देविका की मां इस उपन्यास में अदृश्य है, पर उनकी अनुपस्थिति अंत तक बनी रहती है। बेटी के लिए चिंता जताते हुए वह कहानी को आगे बढ़ाती रहती हैं। इस कहानी के सकारात्मक दिशा क्रम में देविका मनोचिकित्सक डॉ. मृदुला के साथ चली जाती है। मगर वह शिवेन को भूल नहीं पाती। वह उसके जेहन से बाहर नहीं निकल पाता। मन में सच्चा भाव हो तो युगल सचमुच एक दूसरे को नहीं भूल पाते हैं। … तो देविका पल के लिए भी उससे तनहा नहीं होती, शिवेन अहर्निश रहता है।    

कितनी टूटन हो मगर प्रेम रोग का किटाणु कहीं बचा रह गया तो स्त्री-पुरुष एक दूसरे को भूल नहीं पाते। शिवेन और देविका का यही हाल है। वह देविका के बिना नहीं रह सकता। यही हाल देविका का है। सच ही है कि प्रेम की गुलाबी रोमानियत के उलट, विवाह असलियत की खुरदरी जमीं है। ‘साज बाज’ में पति-पत्नी के बीच तनावपूर्ण संबंधों के बीच बाल यौन शोषण की कुछ स्मृतियां और घटनाएं रखी गई हैं। शिवानी भी उन काली स्मृतियों को ब्लाग के माध्यम से सामने रखती है और यह वायरल हो जाता है। अध्याय ‘विद्रूप किस्सागोई’ में प्रियंका ओम ने एक गंभीर मुद्दे पर सार्थक लेखन किया है।

प्रियंका ने स्त्री-पुरुष मन को रेशमी ताने-बाने के साथ बेहद खूबसूरती से बुना है। दो मन भावनाओं का गुलदस्ता रखते हैं एक दूसरे के लिए। एक दूसरे को मन ही मन पाती लिखते हैं। एक दूसरे को शिद्दत से महसूस करते हैं। शिवेन तो यहां तक कहता है-तुम मुझमें इतनी ज्यादा हो कि मैं अब खुद में कम बचा हूं। उसकी चिट्ठियां पढ़ देविका की आत्मा बरसाती नालों सी बहती है। कुल जमा ये कि देविका का मन न भेजी गई चिट्ठियों का लिफाफा है।

कथानक की एक खास किरदार मृदुला जी ने नवदंपति के बिखरते रिश्ते को संभाला है। एक दिशा दी है। क्योंकि वे जानती हैं कि जिंदगी दोबारा मौका नहीं देती। आखिरकार वे शिवेन और देविका का मिलन करा देती हैं। उलझन से घिरे दंपतियों को प्रियंका ओम ने सार्थक संदेश दिया है-जहां मैं होता है वहां प्रेम नहीं होता। एक बात और, वह यह कि कभी-कभी पत्नी और पति में अलगाव भी प्रस्तावना लिखता है। सबसे बड़ी बात जो प्रियंका ओम कहना चाहती हैं वह है-एक प्रेम ही है जो तमाम दोषों का निवारण है। उपन्यास की भाषा में एक अविरल सौंदर्य है। लेखिका ने उर्दू के शब्दों को मुक्तहस्त से प्रयोग किया है। वहीं हिंदी-संस्कृत और उर्दू के शब्दों का संगम दिखता है। यह उपन्यास हर युगल को पढ़ना चाहिए।  

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