डॉ.पुष्पा जोशी

आज सुबह घर की साफ-सफाई के बाद सोचा बेकरी से कुछ आवश्यक सामान ले आऊं उसके बाद ही स्नान-ध्यान कर दिन की शुरुआत की जाए। यूं भी कोरोना के समय से बाहर से आकर स्नान की आदत लगभग सभी को हो गई है। मैं भी यही सोच कर बाहर निकल गई। अभी सोसायटी के गेट पर भी न पहुंच पाई थी कि लगा कोई पीछे से आवाज दे रहा है। मैं चलती रही … फिर सुनो, सुनो की आवाज कानों में पड़ी। मैंने पीछे घूम कर देखा, एक टिप-टाप महिला मुझे ही आवाज दे रही थी। मैंने रुक कर पूछा जी, कहिए।
उसने कहा-सुनो! तुम सुबह जहां काम करती हो मैं ठीक उसके सामने वाली बिल्डिंग में रहती हूं। तुम्हें बहुत मन लगा कर काम करते हुए देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता है।
– जी! धन्यवाद!    
-तुम्हारे कितने घर हैं?
-जी, एक ही है।
-तब ठीक है,ज्यादा घर होने पर ठीक से काम करना मुश्किल हो जाता है।
मेरी समझ से परे, मुझे लग रहा था कि यह महिला मुझसे इस प्रकार की बात क्यों कर रही है? जान न पहचान मैं तेरा मेहमान।
-तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं?
-जी, मैं अकेली ही रहती हूं।
-ये तो और भी अच्छा है।

मुझे लगा नामुराद मेरे अकेलेपन का फायदा उठाना चाहती है। कोई शातिर तो नहीं?
मैंने कहा-देखिए मैं जल्दी में हूं। कृपया मुझे जाने दीजिए। हम फिर कभी बात करेंगे। अभी में जल्दी में हूँ। मुझे बहुत से काम हैं।

मुझे उलझन हो रही थी क्योंकि घर का काम करते समय मैंने जो कपड़े पहने थे वो काफी गंदे हो चुके थे और मैं उन्हीं में बाहर निकल आई थी। मैं जानती थी इतनी सुबह जान-पहचान वाला कोई मिलेगा नहीं। जल्दी ही सामान लेकर वापस आ जाऊंगी। पर ये तो मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गई है।
वो बोली, तुम सुबह जो अपनेपन से झाडू-पोछा करती हो वह मुझे बहुत पसंद आता है।
-मैंने कहा, तो?
-वो बोली-मेरे पास आजतक जितनी भी मेड आईं हैं सबके पास काम के लिए कई-कई घर होते हैं जिस कारण वे जल्दी-जल्दी काम निपटा कर भागने की कोशिश करती हैं। मन लगा कर काम नहीं करती हैं। सभी बहुत प्रोफेशनल हो गईं हैं। थोड़ा सा भी एक्स्ट्रा काम बोलो तो तपाक से या तो मना कर देती हैं या एक्स्ट्रा चार्ज की बात करने लगती हैं। अपनापन तो रहा ही नहीं जैसे?
-तुम्हारा मर्द कहां रहता है?
-मैने कहा- बाहर रहते हैं।
-महीने में एकाध बार आ जाते हैं?
-जी, उनकी मर्जी पर होता है।
मुझे लगा पक्का ठगी का इरादा रखने वाली ही है। तभी इतनी तहकीकात कर रही है। अब तो मुझे स्वयं क्रोध आ रहा था। मैं इसको अपने भेद क्यों दे रही हूं।
-मैंने कहा-अच्छा मैं चलती हूं। मुझे बहुत देर हो रही है।
-अरे ! रूको! रूको! तुम्हारे काम की बात तो अभी मैंने बताई ही नहीं।

मेरे पास उसकी बकवास सुनने के लिय जरा भी वक्त न था।
-मैंने कहा- क्षमा कीजिए । हम फिर कभी बात करेंगे। अभी मैं चलती हूं।
-अरे! अरे! तुम्हारे फायदे की बात है।
फायदे की बात सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। आखिर नफा-नुकसान ही तो जीवन में असली उतार-चढाव के अतिरिक्त अपने-परायों की पहचान कराता है। अब मेरी ठहरने की बारी थी। मैंने सोचा हाथी निकल गया है अब तो पूंछ ही बाकी है। इतनी देर से मेरा दिमाग चाट रही थी अब मुद्दे पर आ रही तो सुन ही लेती हूं।
-तुम घर के क्या-क्या काम कर लेती हो?
-मैंने कहा- जी! सब कुछ।
-तुम ये बताओ अगर तुमसे झाडू-पोछा, डस्टिंग, बरतन, आटा गूंथना और चॉपिंग करवाई जाए तो कितना चार्ज करोगी?

ओहो! मेरे तो दिमाग की तो जैसे बत्ती ही जल गई। तीसरी आंख खुल गई। अरे वाह! क्या झकास इंटरव्यू था मेड का। आज तो मेरी बल्ले-बल्ले हो गई थी।अभी दो माह पूर्व ही तो मैं शिक्षिका के पद से अवकाश मुक्त हुई थी। लोगों को भरी जवानी में नौकरी नहीं मिलती यहां तो आफ़्टर रिटायमेंट भी जॉब आॅफर। मन हुआ अपनी ही पीठ थपथपा लूं। सोचा बुराई क्या है इस काम में… यूं भी अपने छात्रों को मैं हमेशा यही शिक्षा देती थी कि काम कोई भी हो, वो छोटा-बड़ा नहीं होता। प्रोफाइल चेंज करके देखने में क्या बुराई है। वैसे भी दो महीने से खाली बैठे-बैठे पगला गई हूँ। पगलाने का एक कारण और भी है। टीचिंग में सौ टटरम होते हैं। छात्रों को पढाने के साथ-साथ, पेपर बनाना, कॉपी चेक करना ,लेशन प्लान बनाना ,वर्कशॉप अटेंड करना। मीटिंग अरेंज करना .मेनेजमेंट, प्रिंसिपल, पेरेंट्स को फेस करना। और तौबा तो उस समय हुई जब कोरोना ने संपूर्ण सृष्टि पर अपनी शनि दृष्टि डाली। शनि दृष्टि ही नहीं यमराज की भैसागाड़ी भी न जाने कितनों को ढोकर ले जाने लगी थी। सबसे हृदयविदारक समय था वह जिसे मैं क्या दुनिया का कोई भी व्यक्ति याद नहीं करना चाहता। मुझे लगता है उस समय सबसे अधिक  ऑनलाइन कार्य शिक्षकों ने ही किया था। उस समय हम किसी आइटियन से कम नहीं थे। प्रत्येक कार्य आॅनलाइन।
30 फीसद पगार भी काटी गई। अच्छा! उस समय की सबसे बड़ी बात छात्र के साथ-साथ उसका पूरा घर टीचर पर नजर रखता था। कभी-कभी छात्र स्क्रीन पर अपना फोटो लगा कर सो जाता था। आवाज लगाने पर कुछ देर में वह स्क्रीन पर न आकर मैसेज डाल देता … मैम! नैट इज वेरी स्लो। जितनी कक्षाओं में आपने पढ़ाया होता था प्रत्येक कक्षा की रिकार्डिंग प्रति दिन प्रिंसिपल की पीए को भेजनी पड़ती थी। बारह घंटे स्कूल के नाम पर निकल जाते थे। आॅनलाइन पेपर को पहले कक्षा में ड्राफ़्ट करके लगाना छात्रों के आॅनलाईन आने पर उन्हें लिंक देना। बाप-रे-बाप!।

एक बार एक टीचर से पेपर कुछ पहले खुल गया। फिर क्या था। पेपर आउट का शोर मच गया। आनन-फानन में उस टीचर को दूसरा पेपर बनाकर लगाना पड़ा।
सच में यह मेड का काम तो बहुत बढ़िया है। वैसे भी स्कूल में आठ घंटे काम करने का मतलब कम से कम चार घंटे तो आप बच्चों से बोलते ही हैं। दो महीने से बोलना भी बंद सा हो गया है। इस काम में बोलने को भी मिलेगा। न किसी काम की तैयारी पहले से करनी होगी। न कोई क्रिएटिविटी का झंझट ।

-हां तो क्या कहती हो?
-जी! मैं आपको कल सोचकर बताऊँगी।
-फोन है तुम्हारे पास तो अपना नंबर दे दो।
मैंने मोबाइल नंबर दे दिया ।
-कल किस समय तुम्हें कॉल करूँ?
जी! सुबह दस बजे के बाद।
-अरे! ये तो पूछना ही भूल गई? कुछ लिख-पढ़ भी लेती हो कि नहीं?
-क्या हिसाब-किताब भी करवाना है क्या?
-अरे नहीं। यूं ही पूछ रहीं हूँ, स्कूल गई हो कभी?
-जी! कॉलेज भी गई हूं।
-अरे! ठीक से बताओ, कितना पढ़ी हो?
-जी! पीएचडी हूं संस्कृत विषय में।
-क्या बक रही हो? पता भी है पीएचडी क्या होता है?
-जी! पता है,नाम के पहले डॉक्टर लग जाता है।
-सॉरी-सॉरी-सॉरी, माफी मागती हूं।

सरपट दौडती हुई वो कुछ ही क्षणों में मेरी दृष्टि से ओझल हो गई।

(डॉ.पुष्पा जोशी जानी मानी लेखिका और कहानीकार हैं)

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