अतुल मिश्र
होली के बाद सबसे अहम जो काम है, वह होली-मिलन का रह जाता है। यह सबसे अजीब काम है और इसे भी निपटाना जरूरी माना जाता है। एक जमाने में लोग नए कपड़े पहन कर निकलते थे। कपड़े पर लगी उस कंपनी के निर्माता की तरह मोहर भी कई महीनों तक छपी रहती थी, जिससे यह प्रमाणित होता था कि बंदा बाकायदा नए कपड़े पहने हुए है। अब लोग वैसे कपड़े नहीं पहनते. देहातों ने इस परंपरा को अभी भी जीवित किए रखा है।
यूं तो गले मिलना एक अच्छी रिवायत है, मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो इस रिवायत को तब तक निभाए रखते हैं, जब तक सामने वाले का दम न निकल जाए। उनके शरीर की अकड़न भी मिट जाती और दूसरे आदमी को यह भी पता चल जाता है कि मर्दाना ताकत किसे कहते हैं। ऐसे लोग तब तक गले से लगे रहते हैं, जब तक दूसरे आदमी के मुंह से यह ना निकले कि बस, बहुत हो गया, औरों से भी मिलना है, यार। तब भी वह शख्स इस अंदाज में आपको छोड़ता है, जैसे उसने कोई बहुत बड़ा अहसान कर दिया हो आप पर। यह बहुत बुरी पोजीशन होती है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो आपको देखते ही अपनी बांहें इस अंदाज में फैला देते हैं, जैसे किसी चील ने उड़ान भरने के लिए अपने पर फैला लिए हों और अब वह उड़ने की तैयारी में हो। इसे देहाती लोग कौलिया भरना बोलते हैं। एक बार उन्होंने आपकी कौलिया भर ली, तो फिर यह अंदाजा ही लगाते रहें कि अब छोड़ा कि तब। उनके कब्जे से निकलना बहुत मुश्किल होता है। जब तक वे आपको पूरा प्रेम न दे दें, उनका मन ही नहीं भरता। वे अपने पसीने की गंध को सारी दुनिया के साथ साझा करने के अदम्य साहस से भरे होते हैं. कितना ही कीमती इत्र आपने लगा रखा हो, वे उसकी निरर्थकता सिद्ध कर देते हैं। आदमी अगर इत्र के सागर में भी डुबकी लगा कर निकले, वे उसे बेअसर कर देते हैं।
कई लोग गले की बजाय अपने सीने की हड्डियों से होली मिलते हैं। इसके अलावा वे दो-तीन बार नहीं, जब तक यह कायनात है, तब तक गले मिलते रहने के हौसलों से लबरेज रहते हैं। ऐसा लगता है, जैसे महर्षि दधीचि अपनी बची-खुची हड्डियों को दान देने से पहले गले मिलने आ गए हों. बहुत कष्ट होता है यह सोचकर कि लोग हड्डियां कम होने के बावजूद उन्हें लेकर गले कैसे मिल लेते हैं? मिलते ही नहीं हैं, दूसरों को चुभो कर यह भी बता देते हैं कि अगर कभी कोई ऐसी-वैसी बात की तो गले मिलकर मार डालेंगे। इससे ज्यादा वे और क्या कर सकते है?