लेखक अपने सामाजिक परिवेश से बेहद गहराई से जुड़ा होता है। उसे जो दिखता है, वह लिखता है। स्वतंत्र लेखिका संगीता सहाय समाज के प्रति संवेदनशील हैं। उनकी आकुलता उनके आलेखों में प्रतिध्वनित होती हैं। यही वजह है कि उनके आलेखों में सामाजिक सरोकार दिखता है। उन्हें इस बात का डर है कि यह समाज कहीं मशीनी बन कर न रह जाए और अपनी संवेदनशीलता पूरी तरह न खो बैठे।
लेखिका संगीता सहाय ने अपने आलेखों के संग्रह ‘कही अनकही’ में पाठकों के मन को कुरेदा है। उनके आलेख राष्ट्रीय समाचारपत्रों में प्रकाशित हुए हैं। लेखिका सामाजिक विषमता की जड़ों पर प्रहार करती दिखती हैं। वे आलेख ‘वर्चस्व के औजार’ में लिखती हैं कि बलात्कार की जड़ें हमारे सामाजिक सोच और उसके पितृसत्तात्मक बनावट में है और उससे निवृत्ति का रास्ता उनसके आमूल-चूल परिवर्तन में…। समाज में हाशिए पर खड़ी स्त्री को संगीता मुख्यधारा में लाती हैं तब उन्हें कई विषमताएं दिखती हैं। वे पैतिृक संपत्ति में स्त्री के अधिकार को उठाती हैं, तो उनके विधवा जीवन की अनकही दास्तां भी सुनाती हैं। डायन प्रथा पर लिखते हुए अंधविश्वास का अमानवीय चेहरा सामने लाती हैं। वे महिलाओं की यौन शुचिता के प्रश्न को जीवन मृत्यु से जोड़ने वाले समाज से भी सवाल करती हैं।
लेखिका ने अपने विचारों के इस संग्रह में सामाजिक बुराइयों पर भी प्रहार किया है। ग्रामीण क्षेत्रों में मृत्युभोज भी ऐसा कर्मकांड है जिससे लोग आज भी नहीं बच पाते। मृत्यु शाश्वत है, मगर इससे जुड़ी परंपराएं उतनी ही प्राचीन हैं। कुछ कर्मकांडों को सीमित कर दिया जाए, कम समय में और कम खर्च में गिने-चुने लोगों के बीच पूरा कर लिया जाए तो आम आदमी मृत्यु के शोक से उबरने के बाद कर्ज में नहीं डूबेगा। संगीता सहाय ने इस मुद्दे को अपने आलेख ‘मृत्युभोज के मुकाबिल’ में बेहद गंभीरता से उठाते हुए एक तरह से अपना लेखकीय दायित्व निभाया है।
लेखिका ने राजनीतिक-सामाजिक बुराई बन चुकी भ्रष्टाचार की तह में जाने की कोशिश की है। वे देखती हैं कि एक सरकारी नल पर किस तरह दूध बेचने वाला व्यक्ति उस नल से पानी लेकर अपने दूध के ड्रम में मिलाता है। उस दूध वाले का तर्क है कि यह काम वह अकेले नहीं करता। सभी कर रहे हैं। संगीता लिखती हैं कि समाज के लगभग हर वर्ग ने पैसे कमाने के लिए इसी फंडे को अपना लिया है। जिसे जहां हाथ लग रहा, समेटने में लगा है। भ्रष्टाचार निसंदेह बड़ा मुद्दा है। यह प्रासंगिक है।
कोई दो राय नहीं कि भारतीय समाज इस समय अवसाद से गुजर रहा है। महंगाई और बेरोजगारी से लोग बेहाल हैं। इसी के साथ आत्महत्या की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। हालांकि इसके कुछ कारणों में घरेलू कलह, पति-पत्नी में अनबन, करिअर और शिक्षा में असफलता तथा प्रेम में नाकामी भी कारण है। लेखिका ने इस समस्या को महामारी के रूप में देखा है। उनकी चिंता है पढ़े-लिखे लोग भी खुदकुशी कर रहे हैं। वे लिखती हैं कि पिछले कुछ दशकों से लोगों की इच्छाएं और उम्मीदें तेजी से बढ़ी हैं। सब कुछ मुट्ठी में कर लेने का दौर चल पड़ा है। जबकि उम्मीद और यथार्थ में फर्क होता है। लेखिका ने इस समस्या का बारीकी से विश्लेषण किया है।
यह संग्रह सिर्फ विचारों का पुलिंदा नहीं है। संगीता सहाय समाज के सभी स्याह पक्षों पर रोशनी बिखेरती नजर आती हैं। निसंदेह ‘कही अनकही’ पठनीय है। इसे बोधि प्रकाशन ने छापा है। सवा सौ पेज की यह किताब डेढ़ सौ रुपए की है। यह किताब पाठकों को विचार संपन्न बनाती है।
यह संग्रह सिर्फ विचारों का पुलिंदा नहीं है। सभी स्याह पक्षों पर रोशनी नजर आती हैं।