अंजू खरबंदा
वह 1947 का दौर था। देश ब्रिटिश हुकूमत से आजाद हुआ और यह दो टुकड़ों में बंट गया था। उस समय आमजन को तय करना था कि उन्हें हिंदुस्तान में बसना है या पाकिस्तान में। उस वक़्त लाखों की संख्या में लोग इधर से उधर हुए। सीमा पार से लाखों शरणार्थी भारत आए। दिल्ली में जगह-जगह ‘रिफ्यूजी कैम्प’ यानी शरणार्थी शिविर लगाए गए थे। पापा बताते हैं कि उस समय वे बहुत छोटे थे। ट्रेन से उनके परिवार को हिंदुस्तान भेजा गया। कई जगह भटकने के बाद वे लोग दिल्ली आए। यहां आकर भी बहुत बाद में जाकर बस पाए।
सबसे बड़ा रिफ्यूजी कैम्प यहीं यानी किंग्जवे कैम्प में लगाया गया था। बड़ी संख्या में शरणार्थी यहां तंंबुओं में रहे और फिर वक़्त के साथ उन्हें दिल्ली के अलग-अलग हिस्सों में बसाया गया।
अब बात करते है कि इसका नाम किंग्जवे कैम्प क्यों है?
‘किंग्स-वे’ यानी राजा का रास्ता और कैम्प यानी शिविर। यानी यहां राजा के प्रतिनिधि अधिकारी रहे तो रंक भी रहे।
यहां कई ब्लाक थे। हमारा ई ब्लाक था जो कि सीमेंट की छत वाला था। इसके अलावा बैरकें होती थीं। वास्तव में बैरकें घोड़ों की अस्तबल हुआ करती थी जिन्हें बाद में रिहाइश के लिए बदल दिया गया था।
हमारा ई ब्लाक ठीक डीटीसी डिपो के सामने वाला था। मेरी एक बुआजी बैरक में रहा करती थी जो हमारे घर से कुछ ही दूरी पर था। बीच में मोती सिंह जी का गुरुद्वारा हुआ करता था। बुआजी के घर से कुछ ही दूरी पर तंदूर था। तब आजकल की तरह ड्रम वाले तंदूर नहीं होते थे बल्कि जमीन के अंदर होते थे। तंदूर वाली आंटी जी झुक कर रोटी लगाती। गुंथा हुआ आटा हम घर से लेकर जाते, वो भी पेड़े बना कर।
तंदूर पर कई बार इतनी भीड़ होती थी कि काफी देर बाद नंबर आता। तंदूर के आसपास इतनी तपिश होती कि मन बेचैन होने लगता। पता नहीं आंटी जी दिन भर तंदूर के बिल्कुल करीब बैठ इतनी सारी रोटियां कैसे सेंकती होंगी।
सच है! पापी पेट क्या क्या नहीं करवाता?